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________________ आचार्य ककसूरि का जीवन ] [ ओसवाल सं० १९७८-१२३७ पुत्री अंतज्य-शूद्र मैतार्य को पराई थी। फिर तो यह प्रथा आम जनता में प्रयाः सर्वत्र प्रचलित हो गई । साधारण जनता के आर्थिक संकट दूर करने के लिए एवं व्यापार के विकास के लिए भी बिंबसार राजा ने व्यापार की श्रेणियां बनादी यही कारण था कि आपका अपरनाम श्रेणिक प्रसिद्ध हु श्रा । तथा लेने देने के लिये सिक्का का चलन शुरू कर दिया कि जिससे जनता को अच्छी सुविधा हो गई । उस समय भगवान् महावीर के अलावा महात्मा बुद्ध ने भी अहिंसा का प्रचार करने में प्रयत्न किया था। महात्मा बुद्ध का घराना शुरू से ही भगवान् पार्श्वनाथ के परम्परा शिष्यों का उपासक था । और बुद्ध को वैराग्य का कारण भी पार्श्वसंतानियों के उपदेश और अधिक संसर्ग का ही कारण था । बुद्ध ने सब से पहली दीक्षा भी उन ही निर्मन्थों के पास ली थी और कुछ ज्ञान भी प्राप्त किया था । पर बाद में कई कारणों से वे निर्मन्थों से अलग हो अपने नाम पर बुद्धधर्म चलाया । पर, आपके हृदय में श्रहिंसादेवी का प्रभाव तो शुरु से जैन अवरस्था से ही प्रसारित था और उसका ही आपने प्रचार किया, बस इन दोनों महारथियों ने संसार का उद्धार कर सर्वत्र शांति की स्थापना करदी जिसके सामने ब्राह्मणों की सत्ता मृत्यु कलेवर सी रह गई। इतना ही क्यों पर बहुत से ब्राह्मण तो भगवान् महावीर के अनुयायी बन गये थे इतना ही नहीं बल्कि भगवान् महावीर के धर्म के अनुयायी चारों वर्ण वाले थे । जैसे कि १- क्षत्रिय वर्ण - राजा श्रेणिक, उदाई, संतानिक, प्रदेशी वगैरह २ । २ --- ब्राह्मण वर्ण- इन्द्रभूति, ऋषभदत्त, भृगुपुरोहितादि । ३ - वैश्य वर्ण- श्रानंद, कामदेव, शक्ख, पोक्खलं', ऋषभद्रादि । ४ - शूद्रवर्ण - मैतार्थ, हरकेशी, चाण्डाल, -- सकडाल कुम्हारादि । भगवान् महावीर के धर्म का प्रचार बहुत प्रान्तों में हो गया था तथापि विशाल भारत में कई ऐसी भी प्रान्त रह गई थी कि अभी तक वहां महावीर का संदेश नहीं पहुँच सका था । पर भगवान् महावीर निर्वाण के पश्चात् थोड़े ही समय में प्रभु पार्श्वनाथ के पांचवे पट्टधर आचार्य स्ववंप्रभसूरि ने पूर्व प्रान्त से विहार कर सिद्धिगिरी की यात्रा की और वाद में अपने पांच सौ शिष्यों के साथ अर्बुदाचल की यात्रा कर देवी चक्रेश्वरी की प्रेरणा से श्रीमालनगर में पधारे। उस समय वहां एक वृहद् यज्ञ का आयोजन हो रहा था, जिसमें बलीदान के लिए लाखों मूक पशु एकत्र किये गये थे। पर, उन दया के दरिवाय सूरीश्वरजी को इस बात की खबर मिलते वे राज सभा में जाकर ऐसा सचोट उपदेश दिया कि वहां का राजा जयसेनादि ९०००० घर वालों ने हिंसा से घृणा कर जैनधर्म को स्वीकार कर लिया और उन निरपराध मूक प्राणियों को अभयदान दिया और नूतन श्रावकों के आत्म कल्याण के लिये भगवान् ऋषभदेव का उतंग मंदिर बना कर समय पर उस की प्रतिष्ठा भी करवाई | बाद में ऐसा ही एक मामला पद्यावती नगरी में भी बना वहां भी आचार्यश्री पधारे और यज्ञ वली दी जाने वाले लाखों मूक प्राणियों को निर्भय करके ४५००० घर वालों (राजा प्रजा) को जैन धर्म मंदिर की प्रतिष्ठा भी करवाई । श्राचार्यस्वयंप्रभसूरि ग कर सके। उन्हों को ठीक ऐसा ही मशीनगिरी शिक्षा दीक्षा दी तथा वहां भगवान् शांतिनाथ के एक ऐसे मशीनगिर की तपास में थे कि मेरा अधूरा कार्य मिल भी गया जो विद्याधरवंश में अवतार धारण कर राजऋद्धि का त्याग कर स्वयंप्रभसूरि के पास दीक्षा ली थी जिनको वीराब्द ५२ वर्ष आचार्य पदार्पण किया जिनका नाम था रत्नप्रभसूरि देवी चक्रेश्वरी की प्रेरणा से आप अपने ५०० शिष्यों के साथ आगे बढ़कर मरुधर भूमि में पधारे। पर वहां जाना किसी साधारण व्यक्ति भगवान् महावीर के शासन में चारों वर्ण Jain Education International For Private & Personal Use Only ११६३ www.jainelibrary.org
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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