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________________ वि० सं० ७७८-८३७ ] भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास है। चाहे पुण्य के विशेषोदय से आपको अपने दुष्कों की कटुता का विशेषानुभव अभी नहीं होता होगा पर सांसारिक जीवों को अनेक दुःखों से दुखी व पोद्गलिक-सांसारिक सुखों से सुखी देख कर यह अनुमान तो सहज ही में लगाया जा सकता है ये सब उनके पूर्वोपार्जित शुभाशुभ कर्मों के ही परिणाम हैं । इस प्रकार की सासारिक विचित्रता को देख कर आप शान्ति पूर्वक अपने मन में विचार कीजिये कि आपका यह शिकार रूप कार्य कहां तक आदरणीय है ? सूरीश्वरजी के द्वारा कहे हुए इन मार्मिक शब्दों का उन दयाहीन मनुष्यों पर कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ा कारण उनकी परम्परागत प्रवृति ही ऐसी थी कि वे कर्म बंधक इस जघन्य कार्य को भी धर्मबर्धक वीर त्व सूचक कार्य समझते थे। अस्तु, षे सब एक साथ बोल उठे-महात्मन् ! शिकार करना तो हम क्षत्रिय लोगों का परम्परागत धर्म है । और हमारे गुरु भी हमें यही शिखाते हैं अतः इसमें विचार करने जैसी बात ही क्या है ? सूरिजी--यह कर्त्तव्य श्रापको किसने बतलाया ? यदि किसी स्वार्थ लोलुप व्यक्ति ने इसे श्रापका धर्म कर्तव्य बताया है तो निश्चित ही वह मनुष्य आपका सत्पथ प्रदर्शक नहीं अपितु शत्रुत् सन्मार्ग से स्खलित करने वाला, कुगति योग्य कार्यों को करवाने वाला शत्रु से भी भयङ्कर शत्रु है। इस व्यक्ति ने ते अपने तुच्छ स्वार्थ की सिद्धि के लिये आप लोगों को सीधा नरक का असह्य यातनाभय दुष्ट मार्ग बतलाय है। धर्म शास्त्रों ने तो हिंसा को कर्म नहीं किन्तु दुर्गति प्रदायक पाप कहा है। शास्त्रों में उल्लेख है किमहारम्भी (बहुत आरम्भ समारभ करने वाला ) महा परिग्रही ( महा ममत्वी) पश्चिन्द्रिय घातक और मांसाहारी--उक्त चार कार्यों को करने वाला मनुष्य अवश्य ही नरक का पात्र होता है। फिर आप इस प्रकार जुगुप्सनीय पाप कार्य को करके नारकीय जीवन से कैसे बच सकेंगे ? महानुभावों ! नरक में ऐसी घोर वेदना भोगनी पड़ती है की साधारण मनुष्य तो कहने में ही असमर्थ है पर ज्ञानी पुरुषों ने कहा है कि श्रवण लवनं नेत्रोद्धारं करक्रमपाटनं, हृदय दहनं नासाच्छेदं प्रतिक्षण दारुणम् । कटविदहनं तीक्ष्णपातत्रिशूल विभेदनं, दहन वदनैः कोरेः समन्तविभक्षणम् ॥ अर्थात्-कान के टुकड़े करना, आंखों को खेंच खेंच कर बाहिर निकालना, हाथ पैरों को चीरना, हृदय को जलाना, पल पल में नाक को काटना, कमर को जलाना, तीक्ष्ण धार वाले त्रिशूल से बींधना । अग्नि जैसे मुख वाले अति भयंकर कंक पक्षियों से चारों बाजु को खिलवाना, ( यह सब नरक के भयंकर "तीक्ष्णैरसिभिर्दीप्तः कुन्तै विषमैः परश्वधैश्चकैः । परशुत्रिशूल मुद्गरतोमरवासी गुपण्डोमिः ॥ ___ अर्थात्-तीक्ष्ण धारवाली, चमकती हुई तलवारों से भयंकर बरछियों से, परशुओं से, चक्रों से, त्रिशूलों से, कुठारों से, मुग्दरों से, भालाओं से, फरषिों से ( नरक के जीवों को दुःख देते हैं ) "सम्भिन्नतालु शिरसाच्छिन्न भुजाश्चिछन्न कर्णनासौष्ठाः । भिन्न हृदयोदरान्त्रा भिन्नाक्षिपुटाः सदुःखार्ताः ।।" अर्थात्-जिनके ताल और मस्तक विदीर्ण हो गये हैं जिनके हाथ टूट गये हैं जिनके कान, नाक और होठ ( औष्ठ ) छेदित हो गये हैं जिनके हृदय और प्रान्तड़ियें टूट गई हैं जिनके अक्षपुट भी शस्त्रों से ११४८ जंगल में शिकारी की भेट उपदेश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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