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________________ आचार्य देवगुप्तसूरि का जीवन ] [ओसवाल सं. ११२४-११०८ प्रसन्नता का पारावार नहीं रहा । बड़े उत्साह पूर्वक सब धर्म कार्य में भाग लेने लगे । सूरीश्वरजी के व्याख्यान का ठाठ तो अपूर्व था । हो सकता है आज के भांति उस समय विशेष आडम्बर वगैरह उतना नहीं होता होगा पर जनता के हृदय पटल पर आत्मकल्याण का तो जबर्दस्त प्रभाव पड़ता । वे लोग संसार में रहते हुए संसार के माया जन्य, प्रपञ्चों से विरक्त के समान काल क्षेप करते थे । द्रव्यादि की अधिकता होने पर भी सांसारिक उदासीनता का एक मात्र कारण हमारे पूर्वाचार्यों को प्रादर्श त्याग, संयम और सदाचार था। उनका उपदेश भी सदा ज्ञान दर्शन की शुद्धि एवं विषय कषाय की निवृत्ति के लिये ही हुआ करता था अतः श्रोताओं के हृदय पर भी उसका गहरा असर पड़ता वे सांसारिक प्रपञ्चों में प्रवृत्ति करने के बजाय निर्वृत्ति प्राप्त करने में ही एक दम संलग्न रहते । एक दिन प्रङ्गानुसार आचार्यश्री ने बीस तीर्थङ्करों की कल्याण भूगि श्रीसम्मेतशिखरजी का, व्याख्यान में इस प्रकार महत्त्व बताया कि उपस्थित श्रोताजनों की भावना उक्त कथित तीर्थ की यात्रा कर पुण्य सम्पादन करने की होगई। इधर सेठ मुकुन्द भी अपना मनोरथ सफल होते हुए देख आचार्यश्री को हृदय से धन्यवाद देते हुए अत्यन्त कृतज्ञता सूचक शब्दों में संघ से आदेश मांगने के लिये खड़े हुए। संघने भी सेठजी को धन्यवाद के साथ सहर्ष आदेश दे दिया। श्रीसंघ से आदेश प्राप्त करके कृतार्थ हुए सेठजी व श्राप के पुत्रों ने तीर्थ यात्रार्थ संघ के लिये समुचित सामग्री का प्रबन्ध करना प्रारम्भ किया। सुदूर प्रान्तों में संघ में सम्मिलित होने के लिये आमन्त्रण पत्रिकाएं भेजी गई । मुनि महात्माओं की प्रार्थना के लिये योग्य पुरुष भेजे गये । इस प्रकार मिगसर वद एकादशी के निर्धारित दिवस को यात्रा का इच्छुक सकल जनसमुदाय भरोंच में एकत्रित होगया। आचार्यश्री ने सेठ मुकुंद को संघपति पद अर्पित किया । क्रमशः सूरीश्वरजी के अध्यक्षत्व और सेठ मुकुद के संघपतित्व में शुभ शकुनों के साथ सम्मेतशिखर की यात्रा के लिये संघने भरोंच से प्रस्थान किया। प्रारम्भ में तो करीब २००० साधु और २५००० गृहस्थ ही थे किन्तु मार्ग में उक्त संख्या में बहुत ही वृद्धि होगई : पट्टावलि कार लिखते हैं-इस संघ में सम्मिलित हो कर ५००० साधु साध्वियों और लक्ष भावुको ने तीर्थयात्रा का लाभ लिया। रास्ते के तीर्थों की यात्रा एवं अष्टान्हिका, पूजा, प्रभाव नादि महोत्सवों को करते हुए संघ ठीक समय पर सम्मेतशिखरजी पहुँचा सम्मेतशिखरजी की यात्रा का पुण्य सम्पादन करने में संघने किसी भी प्रकार को कसर नहीं रक्खी । संघपतिजी ने खूष उदार वृत्ति से द्रव्य व्यय कः संघ यात्रा का सच्चा लाभ लिया। सूरीजी ने संघपति मुकुन्द को कहा--गृहस्थोचित सकल धार्मिक कृत्य तो हो चुके हैं, अब केवल प्रात्म कल्याण का निवृत्ति मार्ग स्वीकार करना ही अवशिष्टरहा है अतः पुण्यात्मन् ! यदि आत्मोद्धार करने की सच्ची इच्छा है तो सावधान होजावें संघपतिजी आचार्यश्री के शब्दों के भावों को ताड़ गये । उन्होंने अपनी पत्नी और पुत्रों को बुलाकर एतद्विषयक परामर्श किया तो सबके सब दीक्षार्थ तैय्यार होगये । सेठानीजी कहने लगी मेंने तो इस विषय में उस ही दिन से निश्चय कर लिया था पुत्र बोलने लगे-पिताजी! हम आपकी सेवा में तैय्यार है । सेठजी समझ गये कि मेरे पुत्र विनयवान है और मेरी लाज से ही ये दीक्षा के लिये भी तैयार होगये हैं अतः इनकी श्रान्तरिक इच्छा के बिना दीक्षा देना सर्वथा अनुचित है ऐसा सोचकर लल्ल और कल्ल नामक दो पुत्रों को उत्कृष्ट वैराग्य वाला देख अपने साथ में ले लिया और शेष को गार्हस्थ्य जीवन सम्बन्धी भार सौंप दिया । अपने ज्येष्ठ पुत्र नाकुल को संघ पतित्व की माला सम्मेतशिखर तीर्थ का संघ मुकन्द की दीक्षा ११२३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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