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________________ आचार्य गुप्तसिद्धसूरि का जीवन ] [ ओसवाल सं० ११२४-११७८ सेठ मुकुन्द सूरिजी के परमोपकार को कृतज्ञतापूर्वक मानते हुए आचार्यश्री की मुक्तकण्ठ से प्रशंसा करने लगा और कहने लगा-प्रभो ! आपने मुझे संसार में डूबते हुए बचाया है। आपके इस असीम उपकार रूपी ऋण से इस भव में तो क्या पर भवोभव में उऋण होना असम्भव है । गुरुदेव ! मेरे योग्य ୯ कुछ धर्म कार्य फरमाकर इस दास को कृतार्थ करें। सूरिजी ने कहा- महानुभाव ! प्रत्येक प्राणी को धर्मोपदेश देकर सत्य मार्ग के अनुगामी बनाना तो हमारा कर्तव्य ही है । इसमें कोई नवीन या विशेष बात तो है ही नहीं । दूसरा हम निर्मन्थों की क्या आज्ञा हो सकती है ? आपको पूर्व पुण्य के संयोग से मनुष्य भव योग्य सम्पन्न सामग्री प्रान हुई है तो इसका जैन शासन की सेवा एवं प्रभावना जन कल्याणार्थ में सदुपयोग कर अपना जीवन सफल बनाओ। श्रावकों के करने योग्य ये ही कार्य है कि जहां अपनी खासी आबादी हो वहाँ आवश्यकतानुकूल जिन मन्दिर का निर्माण करवा कर दर्शन पदाराधन का सुयोग्य पुण्य सम्पादन करना, तीर्थयात्रार्थ संघ निकालना, जैना गमों को लिखवा कर ज्ञान भण्डार की स्थापना करना तथा ज्ञान प्रचार के पुण्यमय कार्यों में सहयोग देना, स्वधर्मी भाइयों की हर तरह से सहायता करना, नये जैन बना करके जैनधर्म का विस्तृत प्रचार करना इत्यादि । इन्हीं कार्यों से आपकी भी आत्मशुद्धि होगी व जिन शासन की सच्ची सेवा का लाभ भी मिज़ सकेगा । सेठजी ने सूरीश्वरजी के उक्त उपदेश को शिरोधार्य कर लिया । वे अत्यन्त आश्चर्य पड़े हुए विचारने लगे कि - धन्य है ऐसे महापुरुषों को जिनके उपदेश में भी परमार्थ के सिवाय स्वार्थ की किञ्चित भी गन्ध नहीं । श्रहा कितना पवित्र जीवन ? कितना उच्चतम आदर्श ? कैसा अपूर्व त्याग ? व जन कल्याण की कैसी आदर्श भावना ? अरे आचार्यश्री के सैकड़ों शिष्य वर्तमान हैं उनमें से बहुतसों के कम्बल, वस्त्र, पात्र, पुस्तकादि श्रमण जीवन योग्य भण्डोपकरण की आवश्यकता होगी पर वे तो इसके लिये भी प्रेरित नहीं करते !! अहा कैसा सादगी पूर्ण त्याग मय जीवन है । इस प्रकार की आचार्यश्री के प्रति उच्चभावनाओं को भावते हुए सेठजी ने पुनः विनय पूर्वक प्रार्थना की भगवन् ! मेरे योग्य आपको सेवा का उचित आदेश फरमाने की कृपा करें। इस पर सूरिजी ने कहा श्रेष्टिवर्य । जैनमुनि निर्ग्रन्थ एवं निस्पृही होते हैं। किसी भी वस्तु का शास्त्र मर्यादा से अधिक संग्रह करना उनके श्रमण वृत्ति का विघातक है । वे अपनी संयम यात्रा के निर्वाह के लिये शास्त्रानुकूल स्वल्प उपकरण रखते हैं और आवश्यकता होने पर गृहस्थियों के घरों से याचना करके ले आते हैं । उनके लिये खास करके बनाई हुई या मोल लाई हुई वस्तु का वे लोग उपयोग नहीं करते हैं । इस प्रकार की वस्तुओं का उपयोग करने वाले तो श्रमण होने पर भी गृहस्थ ही हैं। वर्तमान में हमारे मुनियों के लिये किसी भी प्रकार की वस्तु की आवश्यकता नहीं है फिर भी आपकी भावनाएं अत्यन्त उत्तम हैं । गृहस्थों को सदा ही ऐसे उच्च विचार रखने चाहिये ये भावनाएं मेरे ऊपर रक्खो - ऐसा नहीं किन्तु जो कोई भी पञ्च महाव्रतधारी वीरधर्मोपासक श्रमण निर्मन्थ हो - सबके लिये रखनी चाहिये । सेठ मुकुंद को आचार्य देव की निस्पृहता देख कर पहले के ब्राह्मण और गुरुओं की याद आगई । वे दोनों की तुलनात्मक दृष्टि से तुलना करने लगे-कहां तो वे लोभी, लालची और लोलुपी गुरु जो रात दिन लाभो -- लाओ करते हुए थकते ही नहीं हैं और कहां ये निर्ग्रन्थ महात्मा जो, मेरे बार २ प्रार्थना करने पर भी अपनी पारमार्थिक वृत्ति का ही परिचय दे रहे हैं। विशेष में सेठजी ने निश्चय कर लिया कि संसार में यदि कोई तारक साधु हैं तो, जैन निर्मन्थ मुनि ही । सेमुकन्द ने उपकेशपुर का संघ Jain Education International For Private & Personal Use Only १११९ www.jainelibrary.org
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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