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________________ आचार्य देवगुप्तसूरि का जीवन ] [ ओसवाल सं० २०८०-११२४ नहीं करते थे । उस समय के श्रावक लोग भी इतने भावुक थे कि यदि आचार्य श्री शासन के कार्य के लिये थोड़ा सा भी इशारा करते तो वे अपना अहोभाग्य समझते । शासन की अलभ्य सेवा का लाभ समझ चतुविधश्रीसंघ के हित के लिये वे भी अपना तन, मन एवं धन अर्पित कर देते । श्रच र्यश्री के उपदेश से शासन के एक कार्य को दस, बीस भावुक श्रावक करने को तयार हो जाते हैं। कहा भी है कि "ले लो करतां लेवे नहीं और मांग्या न आपेजी कोय" ठीक है जितना हर्ष एवं उत्साह से कार्य किया जाता है उतना ही लाभ है । चतुर्विध संघ तो पच्चीसवां तीर्थङ्कर रूपही है अतः संघ के हित की रक्षा एवं उन्नति करना, शासन की प्रभावना कर इतर धर्मावलम्बियों के हृदय में श्रद्धा के बीज अङ्कुरित करना श्रावक समाज का भी परम कर्तव्य हो जाता 1 इस पर सूरिजी तो बड़े ही समयज्ञ एवं काल मर्मज्ञ 1 आचार्यश्री का बहुत वर्षों के पश्चात् पुनः मरुधर में पधारना, और पहला चातुर्मास नागपुर में होना वहां की जनता को और भी धर्म मार्ग की और प्रोत्साहित कर रहा था । चातुर्मास के दीर्घ समय में सूरिजी का व्याख्यान हमेशा ही होता था । व्याख्यान में जैनों के शिवाय जैनेतर - ब्रह्मण, क्षत्रियदि भी उपस्थित होकर ज्ञान का लाभ उठाने में अपने को भाग्यशाली समझते थे । आचार्यश्री एक निर्भीक वक्ता एवं तेजस्वी उपदेशक थे । दर्शन और आचार विषय का तुलनात्मक दृष्टि से इस प्रकार विवेचन करते कि सुनने बालों को व्याख्यान बड़ा ही रूचिकर लगता था । जो लोग जैनों को नास्तिक कहते थे । और उससे घृणा करते थे वे ही लोग श्राचार्य श्री की ओर प्रभावित हो जैनधर्म को भूरि २ प्रशंसा करने लगे । करीब ४०० ब्राह्मणों ने तो मिध्यात्व का वमन कर जैनधर्म को स्वीकार किया। सूरिजीने कहा भूदेव ! केवल आपने पहले पहल ही जैनधर्म को स्वीकार नहीं किया है। किन्तु श्राप लोगों के पूर्व भी श्री गोतमादि ४४०० और शय्यंभव, यशोभद्र, भद्रबाहु आर्य रक्षित, वृद्धवादी और सिद्धसेन दिवाकर — जो संसार में अनन्य - श्र जोड़ धुरंधर विद्वान थे, चारवेद, अष्टांग निमित्त, अष्टादश पुराणादि अपने धर्म के शास्त्रों के पारङ्गत थे तुलनाare froपक्षपात दृष्टि से विचार किया तो आत्मकल्याण के लिये उन्हें भी जैनधर्म ही उपादेय मालूम हुआ अतः मिध्या कदाहको छोड़ वे तत्काल जैनधर्म में दीक्षित होगये । उन्होंने अपनी कार्य दक्षता से यज्ञों में एवं देव देवियां के नामपर हजारों मूक पशुवों का बलिदान करने वाले याजकों को हिसा धर्मानुयायी जैनधर्मो बनाये । उनका इतिहास आज भी हमारे हृदय में नवीव रोशनी एवं कान्ति को स्फुरित करने वाला है । सुरिजी द्वारा दिये गये उक्त उदाहरणों से उनकी श्रद्धा और भी अधिक दृढ़ होगई । सूरिजी महाराज का श्रात्म कल्याण की ओर अधिक लक्ष्य था अतः जब आप उपदेश देते तब त्याग वैराग्य के विषय को सुनकर श्रोताओं की इच्छा संसार को तिलाञ्जली देने की होजाती किन्तु चारित्र मोहनीय के क्षयोपशम नहीं होने के कारण सब तो ऐसा करने में असमर्थ रहते फिरभी बहुत से भावुक दीक्षा के उम्मेदवार हो ही जाते । इसी के अनुसार चातुर्मास समाप्ति के पश्चात् उन दिक्षार्थियों को दीक्षा दे श्राचार्य श्री वहां से विहार कर - -मुग्धपुर, हर्षपुर, खटकुंपपुर आदि छोटे बड़े प्रामों में परिभ्रमन करते हुए उपकेशपुर पधार गये। वहां के श्रीसंघ ने बड़े ही हर्ष से आपका स्वागत किया । श्राचार्यश्री ने भगवान् महावीर और आचार्यश्री रत्नप्रभसूरीश्वर जी की यात्रा कर स्वागतार्थ श्रागत श्रावक मण्डली को किञ्चित् धर्मोपदेश दिया । सूरीश्वरजी उपकेशपुर में Jain Education International For Private & Personal Use Only ११०३ www.jainelibrary.org
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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