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________________ आचार्य देवगुप्तसूरि का जीवन ] [ओसबाल सं२ १०८०-११२४ राजा ने बड़ी नम्रता के अर्ज की कि-भगवन् ! आपने मुझ निराश्रित को आशीर्वाद देकर राजा बनाया यह तो आपका परमोपकार है ही पर मुझे अज्ञान से बचाकर धर्म की राह में लगादिया इस उपकार को वर्णों से व्यक्त करना अशक्य हैं। मैं भव भव में आपका इस उपकार के लिए ऋणी रहूँगा। प्रभो ! केवल मैं ही नहीं पर मेरी सन्तान परम्परा भी आपके उपकार को समझेगी एव मानती रहेगी। - पूज्य गुरुदेव ! भगवान् पार्श्वनाथ का मन्दिर तैयार हो गया है। अतः इसकी प्रतिष्ठा करवा का हम लोगों को कृतार्थ करें । विषेश में आपनो यहां चातुर्मास कर हमारे सबके मनोरथों को सफल करें । यद्यपि गोसलपुर की नींव डाले को अभी पूरे पांच वर्ष भी नहीं हुये किन्तु कई प्रकार सुविधाओं के कारण बहुत से मनुष्य भाकर उक्त नूतन नगर में बस गये थे अतः देवगुप्तसूरि के चातुर्मास करने योग्य नगर बनगया था । जिस समय सूरिजी गोसलपुर में पधारे थे उस समय गोसलपुर में न तो आलीशान उपाश्रय थे और न सुंदर धर्मशालाएं ही थी । घास एवं बांस से बने हुए झोपड़ों की हरमाल दृष्टिगोचर हो रही थी इन सब घरों की संख्या करीब करीब ४.५ हजार की थी । यद्यपि एक नूतनता के कारण, चाहिये उतने साधन उपलब्ध न हो सके फिर भी गौसलपुर की जनता की श्रद्धा भरी भक्ती ने सूरिजी को इतना शाकर्षित किया कि उन्हें; वह चातुर्मास गोसलपुर में करना ही पड़ा । गोसलपुर के चातुर्मास निश्चय के पश्चात् श्रापार्य देवने अपने अन्य साधुओं को तो आस पास के क्षेत्रों में विहार करने एवं धर्म प्रचार करते हुए योग्य स्थलों पर योग्य मुनियों के साथ चातुर्मास करने के लिये भेज दिये और आप स्वयं १०० तपस्वी साधुओं के साथ गोसलपुर में ठहर गये । बस सूरिजी के विराजने से जंगल में भी मंगल हो गया सर्वत्र आनंद की एक अलौकिक एवं अपूर्व रेखा दृष्टिगोचर होने लगी । आसपास के क्षेत्र वालों ने जब प्राचार्यश्री का गोसलपुर चातुर्मास करने के निश्चय को सुना तो उनमें से बहुतसों ने चातुर्मास में आचार्यश्री की सेवा का लाभ लेने के लिय गोसलपुर में श्राकर चातुर्मास पर्यन्त स्थिर वास कर लिया। गोसल पर राज्य की सुव्यवस्था, एवं गोसलपुर नरेश की दयालुत्ता तथा सर्व प्रकार की सुविधाओं से आकर्षित हो बहुत से मनुष्यों ने तो अपना सर्वदा के लिये सर्वथा स्थायी निवास बना लिया। सारांश यह कि-दिन प्रतिदिन गोसलपुर गाम्यावस्था को त्याग कर भव्य शहर का रूप धारण कर रहा था। ऐसे तो गोसलपुर का प्राकृतिक दृश्य ---पहाड़ी स्थान होने से एकदम चित्ताकर्षक था ही किन्तु आसपास की इस नवीन एवं घनी आबादी ने उन स्थानों पर यत्र तत्र मापड़े बनाकर प्रकृतिक सौन्दर्य गुण में कृत्रिम सुन्दरता की अभिवृद्धि की । चारों तरफ हरी २ हरियाली की अधिकता, विविध प्रकार के वृक्षों की आडीटेड़ी एवं सम श्रेणियां लताओं की विस्तृतता, विचित्र २ पुष्पों की सौरभ एवं वहां पर निवास करने पाले मनुष्यों के भद्रिक हृदय एकबार तो जन-मनको स्वभाविक श्राकर्षित करलेते । प्राचार्यदेव के विराजने से नूतन नगर वनस्थली-धर्मपुरी बनगई । जंगली पन का गुण धर्मरूप में परिणित हो गया। नवीन प्रागन्तुकों वृद्धि ने गोसलपुर की शोभा एवं वहां के निवासियों के उत्साह में वृद्धि करदी। सूरीश्वरजी के विगजने से ऐसे तो सबको ही लाभ मिला पर, रावगोसल को कुछ विशेष धर्मलाभ प्राप्त हुआ। जैनधर्म का प्रचार के करना तो उन महात्माओं के नसों में ही नहीं अपितु रोम रोम में जैन धर्म का प्रचार करना यह कोई साधारण शिशुकीड़ा किंवा गुड़ियाओं का खेल मह है। इसके लिये प्रयारकों के हृदय में भास्मसमर्पण की उदार भावनाएं होनी चाहिये । उनको अपनी सुविधा, असुविधा, सुख दुःख, प्रशंसा, पार्श्वनाथ मन्दिर की प्रतिष्टा १०६५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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