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________________ वि० सं० ६८०-७२४] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहा था । यों तो माता वरजू ने छ पुत्र और सात पुत्रियों को जन्म देकर अपने जीवन को कृतकृत्य बनाया था पर उन सब सन्ततियों में एक पुनड़ नामका लड़का अत्यन्त भाग्यशाली वर्चस्वी तेजस्वी, एवं होनहार था। उसकी जन्म पत्रिका एवं जन्म नक्षत्र मुख व तेज, बाल्यकालजन्य स्वाभाविक चपलता, धर्म कार्यकुशलता, धर्मानुराग उसके भावी जीवन के अभ्युदय का सूचन करते हुए हर एक दर्शक को एक बार उस की ओर चुम्बक की तरह आकर्षित कर रहे थे पुनड़ की भाग्य रेखा रह रह कर यह याद करवा रही थी कि--पुनड़, निकट भविष्य में ही अपने युग का अनन्य महापुरुष होगा । संसार में अपने जीवन के साथ ही साथ अन्य अनेक प्राणियों की आत्मा का उद्धार करने वाला, अपने कुल एवं माता पिता के नाम को उज्वल कर नारदपुरी का ही नहीं प्रत्युत् मरुभूमि मात्र का मान बढ़ाने वाला होगा। "होनहार विखान के होत चिकने पात" की कहावत के अनुसार पुनड़ के प्रत्येक कार्य चमत्कार पूर्ण, अश्चर्योत्पादक, आनंद प्रदायक होने लगे। क्रमशः पुनड़ जब आठ वर्ष का हुआ तब विद्योपार्जन करने के लिये उसे स्कूल में प्रविष्ट किया गया । पूर्व जन्म की ज्ञानागधना की प्रबलता से पुनड़ अपने सहपाठियों से पढ़ने में कितने ही कदम आगे रहता था । परिणाम स्वरूप उसने बारह वर्ष की अल्पवय में ही व्यवहारिक, व्यापारिक एवं धार्मिक ज्ञान सम्पादित कर लिया। बाद पुनड़ व्यापार क्षेत्र में प्रवेश होने लगा और अपने पिता के बोझ को हलका कर दिया अब तो पुनद की शादी के लिये भी रह रह कर प्रस्ताव आने लगे पर पुनड़ की वय १६ वर्ष की ही थी अतः इतनी अल्पवय में विवाह करना शा. बीजा को उचित नहीं ज्ञात हुआ। शा. बीजा का निश्चय अनुसार तो पुनड़ की बीस वर्ष की परिपक्व वय में पाणि पीडनादि गाह-जीवन सम्बन्धी भार उसके सिर पर डालने का था पर माता वरजू को इतना विलम्ब कैसे सह्य हो सकता ? स्त्रियां स्वाभाविक ही अधीर एवं किसी भी कार्य को जल्दी करने के दुराग्रह वाली होती हैं अतः वह प्रतिदिन अपने पतिदेव को इस विषय में कोसती । पुनड़ के विवाह को जल्दी करने के लिये प्रेरित करती किन्तु गम्भीर हृदय के स्वामी शा. बीजा हां, ना में समय व्यतीत करते ही जाते । उनको अपने पुत्र के भविष्य का पूर्ण ध्यान था अतः प्रकृतिसिद्ध स्त्रियों की चपलता. नुसार एकदम गृहस्थाश्रम का भार बालक को सोंप देना उचित नहीं ज्ञात हुआ । इधर तो पति पत्नी पुनड़ के विवाह के सुख स्वप्न देख रहे थे और उधर पुनड़ अपना विलक्षण ही मनोरथ कर रहा था । इतनी विवाह सम्बन्धी हलचल होने पर भी उसने शिशु जन्य चाञ्चल्य गुण से अपनी मनो भावनाओं को अभी से प्रद शित कर माता पिता के भविष्य के इरादों को निर्मूल कर संतापित करना उचित नहीं समझा इस तरह करीब दो वर्ष व्यतीत हो गये। एक समय धर्म प्राण, श्रद्धेय, पूज्याचार्यश्री कक्कसूरिजी महाराज का शुभागमन नारदपुरी की ओर हो रहा था । जब नारदपुरी के श्रीसंघ को प्राचार्यदेव के पदार्पण के शुभ समाचार ज्ञात हुए तो हर्ष के मारे उन लोगों के रोम रोम फूल उठे। धर्मानुराग की सुखमय भावनाएं उनके हृदय में नवीन कौतुहल का प्रादु. र्भाव करने लगी । गुरु आगमन की खुशी में उन लोगों का हृदय सागर धर्म भावना की उर्मियों से ओत प्रोत हो गया । क्रमशः सूरीश्वरजी के पधारते ही श्रेष्टि-गोत्रीय शा. देवल ने एक लक्ष द्रव्य व्यय कर आचार्य देव के नगर प्रवेश का शानदार महोत्सव किया । सूरिजी ने नगर प्रवेश करते ही मंदिरों के दर्शन किये और उपाश्रय में आकर श्रागत जन मण्डली को थोड़ी सी धर्म देशना दी। आचार्यश्री की देशना श्रवण कर १०८६ सूरीश्वरजी का शुभागमन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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