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________________ आचार्य सिद्धसूरि का जीवन ] [ ओसवाल सं० ९२०-९५८ उनको शीघ्र ही अपनालिया श्रतः पाश्चात्य देशों में बौद्ध धर्म का काफी प्रचार बढ़ गया । हाँ जैन श्रमण भी पाश्चात्य देशों में अपने धर्म प्रचारार्थ सम्राट् सम्प्रति की सहायता से गये थे और अपने धर्म का प्रचार भी किया था जिसकी साबूति में आज भी वहाँ जैन धर्म के स्मारक रूप मन्दिर मूर्तियों उपलब्ध होती है। पर जैन धर्मं खास त्यागमय धर्म है इस धर्म के नियम बहुत शक्त होने से संसार लुब्ध जीवों से पलने कठिन है । यही कारण है कि पाश्चात्य लोग जितने बौद्ध धर्म से परिचित थे उतने जैन धर्म से नहीं थे इतना ही क्यों पर कई कई विद्वानों ने तो यहाँ तक भूल कर डाली कि जैन धर्म एक बौद्ध की शाखा है तथा जैन धर्म बौद्ध धर्म से निकला हुआ नूतन धर्म है। दूसरा पाश्चात्य विद्वानों को जितना साहित्य बौद्ध धर्म का देखने को मिला उतना जैन धर्म का नहीं मिला था श्रतः भारत में जितने प्राचीन स्तूप सिक्के मिले उनको बौद्धों ही ठहरा दिया। फिर वे स्मारक चाहे बौद्धों के हों चाहे जैनों के हों । और सिक्कों पर खुदे हुए चिन्हों के लिये भी चाहे वे जैन धर्म के साथ सम्बन्ध रखने वाले भी क्यों न हों पर उन विद्वानों के तो पहले से ही संस्कार जमे हुए थे कि वे युक्ति संगति एवं प्रमाण मिले या न मिले। सीधा अर्थ होता हो या इधर उधर की युक्ति लगाकर ही उन सबको बौद्धों का ही ठहराने की चेष्टा १ कर डाली । एक और भी कारण मिल गया है कि इ० सं० की पांचवी शताब्दी से सातवीं आठवीं शताब्दी तक के समय में जितने atrat यात्री भारत में आये और उन्होंने भारत में भ्रमण कर अपनी नोंध डायरी में जो हाल लिखा वे भी इसी प्रकार से काम लिया कि बहुत से जैन स्मारकों को बौद्ध के लिख दिये वे पुस्तकों के रूप में प्रकाशित होने से पाश्वात्य विद्वानों को ओर भी पुष्टी मिल गई। फिर भी इतना कहा जा सकता है कि पाश्चात्य एवं पौर्वात्य विद्वानों ने यह भूल जान बूझ एवं पक्षपात् से नहीं की थी पर इस भूल में अधिक कारण जैनों का ही है कि उन्होंने अपने साहित्य को भंडारो की चार दीवारों में बान्ध कर रखा था कि उन विद्वानों को देखने का अवसर ही नहीं मिला वस उन्होंने जो इन्साफ दिया वह सब एक तरफो ही था -- जब से कुदरत ने अपना रुख जैनों की ओर बदला और विद्वानों की सूक्ष्म शोध ( खोज ) एवं जैन धर्म का प्राचीन साहित्य की ओर दृष्टिपात हुआ जिससे वे ही विद्वान लोग अपनी भूल का पश्चाताप करते हुए इस निर्णय पर आये कि जैन धर्म न तो बौद्ध धर्म से पैदा हुआ न जैन धर्म बौद्ध धर्म की एक शाखा ही है प्रत्युत जैन धर्म एक स्वतंत्र एवं प्राचीन धर्म है इतना ही क्यों पर बुद्ध धर्म के पूर्व भी जैन धर्म के तेवीसवें तीर्थङ्कर पार्श्वनाथ होगये थे और महात्मा बुद्धदेव के माता पिता भ० पार्श्वनाथ संतानियों के उपासक अर्थात् जैन धर्म का पालन करते थे विशेषतः महात्मा बुद्ध को वैराग्योत्पन्न होने का कारण ही पार्श्वनाथ संतानिये थे और बुद्ध ने सबसे पहली दीक्षा जैन श्रमणों के पास ही ली थी और करीबन ७ वर्ष आपने जैन दीक्षा पाली थी बाद जब उनका तप करने से मन हट गया तो उन्होंने अपना नया धर्म निकाला अतः बौद्ध धर्म का जन्म जैन धर्म से हुआ कह दिया जाय तो भी अतिशयोक्ति नहीं कही जाती है । इधर उड़ीसा प्रान्त की खण्डगिरि उदयगिरि पहाड़ियों की गुफाओं का शोध कार्य करने पर महामेघ The gains appear to have originated in sixth or seventh century of our era to have become oonspicuous in the eight or ninth century, got the highest prosperity in the eleventh and declined after the twelth." ( Elphistone History of India page 121 ) जैन धर्म प्रति अन्याय Jain Education International For Private & Personal Use Only ९९३ www.jainelibrary.org
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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