SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 212
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आचार्य सिद्धसूरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ९२०-९५८ रहा था | पाटण ज्ञान भन्डार में चौदहवीं शताब्दी का एक टूटा हुआ ताड़पत्र का पाना है जिसमें ताड़पत्र का हिसाब लिखा है उस समय एक ताड़पत्र के पाने पर छ आने का खर्च लगता था । यही कारण है कि साड़पत्र का लिखना कम होगया। पाटण, खम्बात, लिम्बड़ी, अहमदाबाद, जैसलमेर आदि के जैन ज्ञान भण्डारों में ताड़पत्र की प्रतियें हैं, उन में विक्रम की बारहवीं शताब्दी से प्राचीन कोई प्रति नहीं मिलती हे । इसका कारण शायद मुसलमानों की धर्मांधता ही होनी चाहिये । आचार्य मल्लवादी ने जो विक्रम की पांचवीं शताब्दी में हुए; नयचक्र प्रन्थ बनाया था । उस प्रन्थ को हस्ति पर स्थापन कर जुलूस के साथ नगर प्रवेश करवाया, इसका उल्लेख प्रभाविक चरित्रादि मेंमिलता है इससे पाया जाता है कि उस समय या उसके पूर्व भी प्रन्थ लेखन कार्य प्रारम्भ हो गया था । कागजः — इस विषय में निर्कस, और मेगस्थनिस वे इंडिया नामक प्रत्येक पुस्तक में लिखते हैं कि भारत में ईसा से तीन सो वर्ष पूर्व रूई और पुराने कपड़ों को ( चिथड़ों को ) कूट कूट कर कागज बनाना प्रारम्भ हो गया था। दूसरा जब अरबों ने ईश्वी सन् ७०४ में समरकंद नगर विजय किया तब रूई और चिथदों से कागज बनाना सीखा । परन्तु इसका प्रचार सर्वत्र न होने से जैनों ने पुस्तक लिखने में इसका उपयोग नहीं किया । कागज पर लिखता जैनियों में विक्रम की बाहरवीं शताब्दी से प्रारम्भ हुआ परन्तु उक्त समय की तो कोई भी पुस्तक ज्ञान भण्डार में उपलब्ध नहीं होती है। हां चौदहवीं शताब्दी की कई २ प्रतियें मिलती हैं । प्राचीन भारतीय लिपि के कर्ता श्रीमान् ओमाजी लिखते हैं कि - डा० बेबर को कागज पर लिखी हुई ४ प्रतियें मिली वे ईसा की पांचवीशताब्दी की लिखी हुई हैं । परन्तु जैन ग्रन्थों के लिये श्रीजिन मण्डन गणि कृत कुमारपाल प्रबन्ध जो सं० १४९२ में उल्लेख मिलता कि आचार्य हेमचंद सूरि ने कागजों पर प्रन्थ लिखाये थे । जैसे कि - 'एकदा प्रातरून सर्व साधूचं वंदित्वा लेखक शालाविलोकनाय गतः लेखकाः कागद पत्राणि लिखतो दृष्टाः । ततो गुरु पार्श्वे पृच्छा - गुरुभिरूचे श्री चौलुक्यदेव ! सम्प्रति श्री ताड़पत्राणां त्रुटिरहित ज्ञान कोशे, अतः कागद पत्रेषु ग्रन्थ लेखन मिति । इसी प्रकार श्री रत्नमन्दिर गणि ने उपदेश तरङ्गिनी ग्रन्थ में वस्तुपाल तेजपाल के लिये लिखा है कि उन्होंने कागज पर शास्त्र लिखवाये । तथाहि : " श्री वस्तुपाल मन्त्रिणा सौवर्णमसिमयाक्षरा एका सिद्धान्त प्रतिर्लेखित : अपरास्तु श्री ताड़ कागद पत्रेषु मषीवर्णाञ्चिताः ६ प्रतयः । एवं सप्त कोटिद्रव्य व्ययने सप्त सरस्वती कोशाः लेखिताः ।' " उ० त० पत्र १४२” कपड़ा : -- यद्यपि शास्त्र लिखने के कार्य में इसका विशेष उपयोग नहीं हुआ तथापि निशीथ सूत्र उद्देशा ११ की चूर्णी में लिखा है कि "पुस्तकेषु वस्त्रेषु वा पोत्थं" इससे पाया जाता है कि कभी २ वस्त्रों पर भी पुस्तक लेखन कार्य किया जाता था । सम्प्रति, पाटण में वख्ताजी की शेरी में जो जैन ज्ञान भण्डार है उसमें " धर्मविधिप्रकरण” वृत्त सहित, कच्छुली रास और त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र (आठवां पर्व) ये तीन पुस्तकें विक्रम की पंद्रहवीं शताब्दी की कपड़े पर लिखी हुई पायी जाती हैं जिनका साइज २५x५ इंच की है। प्रत्येक पाने में सौलह २ लकीरे हैं । इनके सिवाय कपड़े पर अढ़ाईद्वीप, जम्बुद्वीप, नंदीश्वर जैन श्रमणों और पुस्तक काल ] Jain Education International For Private & Personal Use Only ९४९ www.jainelibrary.org
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy