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________________ आचार्य सिद्धसूरि का जीवन ] [ओसवाल संवत् ९२०-९५८ इसका भाव यह है कि युग प्रधान तुल्य गन्धर्ववादी वेताल शांतिसूरि ने वालभ्य संघ के कार्य के लिये वल्लभी नगरी में उद्यम किया। गन्धर्व वादी शान्तिसूरि ने किस तरह समाधान करवाया इस विषय का तो कुछ भी स्पष्टीकरण नहीं मिलता है परन्तु अनुमान से पाया जाता है कि इस मतभेद में क्षमाश्रमणजी का पक्ष बलवान रहा था। यही कारण है कि, दोनों वाचना को एक करने में मुख्यता माथुरी वाचना की रक्खी गई। जो वल्ल्भी वाचना में माथुरी वाचना से पृथक् पाठ थे उनमें जो-जो समाधान होने काबिल थे उनको तो माथुरी वाचना में मिला दिये और शेष विशेष पाठ थे उनको वाचनान्तर के नाम से टीका में और कहीं मूल में रख दिये। इसके कुछ उदाहरण मैंने इसी प्रन्थ के पृष्ठ ४५८ पर उद्धृत कर दिये हैं। इससे वाचना सम्बन्धी दोनों पक्षों का समाधान हो गया । श्री वीर निर्वाण के समय के मतभेद का समाधान तो नहीं किया जा सका फिर क्षमाश्रमणजी का पक्ष बलवान होने से ९८० को मूल सूत्र में और ९९३ को वाचनान्तर में लिखकर इसका भी समाधान कर दिया गया । जैसे: "समणस्सभगवओ महावीरस्स जाव सव्वदुक्खपहीणस्स नववाससायइं वइक्कंताई, दसमस्स वाससयस्स अयं असीइमे संवच्छरे काले गच्छइ।" इति मूल पाठः। "वायणांतरे पुणं तेणउए संवच्छरे काले गच्छद।" इस प्रकार वीर निर्वाण सम्बन्धी मतभेद का समाधान कर शासन में शान्ति का साम्राज्य स्थापित कर दिया । बस, उस समय से ही माथुरी वाचना को अग्रस्थान मिला। यही कारण है कि क्षमाश्रमणजी ने अपने नन्दी सूत्र की स्था विरावली में माथुरी वाचना के नायक स्कंदिलाचार्य को नमस्कार करते हुए लिखा है कि आज उनकी वाचना के आगम अर्ध भारत में प्रसरित हैं: यथा "जेसि इमो अणुओगो पयरइ अज्जवि अड्डभारहम्मि । बहुनयरनिग्गयजसे ते वंदे खंदिलायरिए॥" -"निमित्त वेत्ता आचार्य भद्रबाह स्वामीः और वराहमिहिर" चतुर्दश पूर्वधर श्रुतकेवली भद्रबाहुके वर्णन में हम लिख आये हैं कि कई लोगों ने वराहमिहिर के लघुभ्राता निमित्तवेत्ता आचार्य भद्रबाहु को ही श्रुत केवली भद्रबाहु स्वीकार कर लिया है पर श्रुत केवली और निमित्त वेत्ता दोनों पृथक २ भद्रबाहु नाम के आचार्य हुए । श्रुतकेवली भद्रबाहु का अस्तित्व वीर निर्वाण की दूसरी शताब्दी का है तब वराह मिहिर के लघु भ्राता भद्रबाहु का समय विक्रम की छट्ठी शताब्दी का है अतः यहां मैं वराहमिहिर और भद्रबाहु के विषय में उल्लेख कर देता हूँ --- प्रतिष्ठितपुर नामक नगर के रहने वाले विप्रवंशीय वराहमिहिर व भद्रबाहु नामक दो सहोदरों ने आर्य यशोभद्र के उपदेश से प्रतिपोध पाकर भगवती जैन दीक्षा स्वीकार की थी। ये युगल बन्धु वेद, वेदांग पुराण, ज्योतिषादि विप्रधर्मीय शास्त्रों के तो पहिले से ही परम विचक्षण ज्ञाता थे। जैन दीक्षा अङ्गीकार करने के पश्चात् जैन शास्त्रों का अभ्यास भी बहुत मनन पूर्वक करने लगे अतः कुछ ही समय में जैन दर्शन के भी अनन्य विद्वान् हो गये। इतना होने पर भी वराहमिहिर की प्रकृति चंचल, अधीर एवं अभिमान पूर्ण थी और भद्रबाहु की शान्त, धैर्य, गम्भीर्य, दूरदर्शिता गुणों से युक्त थी अतः गुरु महाराज ने वय में लघु किन्तु गुणों में वृद्ध भद्रबाहु मुनि को ही आचार्य पद दिया। यह बात अभिमान के पुतले वराहमिहिर भ० महावीर की परम्परा] ९२७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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