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________________ वि० सं० ४८०-५२० वर्षे ] [ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास वतलाते हुए कहा कि पूर्व जमाने में इस मरुधर भूमि से कई भाग्यशालियो ने पूर्वकी यात्रार्थ बड़े बड़े संघ निकाल कर चतुर्विघ श्रीसंघ को यात्र कराई और पु यानुबन्धी पुन्योपार्जन किया इत्यादि आपश्री के उपदेश का जनता पर अच्छा प्रभाव हुआ और भावुको की भावना तीर्थों की यात्रा करने की होगई । उसी सभामे श्रेष्टिगौत्रीय मंत्री अर्जुन भी था उसके दिल में आई कि जब सूरिजी ने उपदेश दिया है तो यह लाभ क्यों जाने दिया जाय अतः उसने खड़े होकर प्रार्थना की कि पूज्यवर । यदि श्रीसंघ मुझे आदेश दिरावे तो मेरी इच्छा पूर्व के तीर्थों की यात्रार्थ संघनिकालने की हैं। संघ निकालने का विचार तो और भी कई भावुकोंके थे पर वे इस विचार मैं थे कि घरवालों की सम्मति लेकर निश्चय करेंगे किन्तु मत्रीश्वर इतना भाग्यशाली निकलाकि सूरिजीका उपदेश होते ही हुक्म उठालिया आखिर श्री संघने मंत्री अर्जुन को धन्यवाद के साथ आदेश दे दिया और भगवान महावीर एवं आचार्य देव की जयध्वनि के साथ सभा विसज्जित हुई। ___ मंत्रीअर्जुन के अठारह पुत्र थे कई गज के उच्चपद पर कार्य करते थे तब कई व्यापार में लगे हुए भी थे शामकों जबसब एकत्रित हुए तो मंत्रीने सबकी सम्मति ली पर उसमें एकभी पुत्र ऐसा नहीं निकला कि जिसने इस पुनीत कार्य के खिलाफ अपना मत प्रगट किया हो अर्थात् सबने बड़ी खुशी से अपनी सम्मति देदी । बस फिर तो था ही क्या मंत्री के सव काम हुकम के साथ होने लग गये और दूर-दूर के श्रीसंघ को आमंत्रण मिज वा दिये । पूर्वका संघ कभी व मी ही निकलता था अतः जनता में उत्साह भी खूब बढ़गया था। उस समय इस प्रकार के धार्मिक कार्यों में जनता की रूची भी बहुत थी अतः चतुर्विध श्रीसंघ के आने से पद्मावती नगरी एक यात्रा का धाम बन गयी । सूरीश्वरजी ने संघ प्रस्थान का मुहूर्त भी नजदीक ही दिया कारण मामला बहुत दूर का था और रास्ते में भी कई तीर्थ भूमियों आती है समयानुकुल हो तो स्थिरतापूर्वक यात्रा बड़े ही आनन्द से होसके । पट्टावलीकार लिखते है कि मार्गशीर्ष शुक्ल त्रयोदशी के शुभ दिन मंत्री अर्जुन के संघपतित्व में संघ प्रस्थान कर तीनदिन तक संघ नगरी के बहार ठहर गया पूजा भावना स्वामि वात्सल्य वगैरह संघपति की ओर से होता रहा और भी बहुत से लोग सघ में शामिल होगथे तत्पश्चात आचार्य देवगुप्तसूरि के नायकत्व में संघ ने प्रस्थान कर दिया रास्तों के मन्दिरों के दर्शन जैसे मथुरा शौरीपुर हस्तनापुर सिंहपुरादि तीर्थों की यात्रा पूजा कर संघने वीसतीथङ्करों को निर्वाण भूमि की स्पर्शना एवं दर्शन कर पूर्व संचित कइ भवों के पातक का प्रक्षालन कर दिया । तीर्थ पर ध्वजा अष्टान्दिका महोत्सव पूजा प्रभावना स्वामिवात्सल्यादि धर्म कार्यों में संघपति ने खूब खुल्ले दिल से द्रव्य व्यय कर पुन्योपार्जन किया । बाद वहाँ से चम्पापुरी पावापुरी राजगृह वगैरह पूर्व के सब तीर्थों की यात्राकर संघ वापिस लौटकर पद्मावती आया और मंत्रीश्वर ने सवासेर लड्डु के अन्दर पंच पांच सुवर्णमुद्रिकाएँ तथा वस्त्रादि की संघकों पहरामणिदी तथा याचको को दान दिया बाद संघ विसर्जन हुआ-- अहाहा उस जमाने में जनता के हृदय में धर्म का कितना उत्साह धर्म पर कितनी श्रद्दा भक्ति थी वे जो कुच्छ समझते वे धर्म को ही ममते थे। कई मुनि तो संघ के साथ वापिस लौट आये थे परन्तु आचार्य देवगुप्त सूरि अपने पारसौ मुनियों के साथ पूर्व में धर्मप्रचार के निमित रह गये थे उन्होंने पूर्व में श्रीसम्मेत शेखर के आसपास की भूमि में विकार कर जनता को धर्मोपदेश दिया और जैन श्रावको की संख्या को खूब बढ़ाई जो आज सराक जाति के नाम से प्रसिद्ध है वहाँ से बंगल की ओर विहार कर हेमाचल के मदिरों के दर्शन किया तत्पश्चात् आप विहार करते हुए कलिंग की ओर पधारे और खण्डगिरि उदयगिरि तीर्थ जो शत्रुञ्जय गिरनार अवतारके नाम से खूब . [ आचार्य देवगुप्तसरि का पूर्व में विहार ........................ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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