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________________ वि० पू० १८७ वर्ष । [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास १२-प्राचार्य श्री यक्षदेवसूरि (द्वितीय) पट्टे द्वादश यक्षदेव पद युक् सूरेः पदं लब्धवान् । बंगाना मुपदेश दानकरणान्मांसादने सक्त ताम् ।। पाने तत्परतां निवार्य सहसा यात्वोपकेशे पुरे । देशे वै मरु नामके नृप कुलं जैन चकार स्वयम् ।। HTML चार्य यतदेवसूरि बड़े प्रतापशाली आचार्य हुए। आप लोहाकोट नगर के सचिब प्रथुसेन के होनहार सुपुत्र (धर्मसेन ) थे। आपने तरुणवय में कोड़ रुपैयों की सम्पदा एवं सोलह " स्त्रियों को त्याग कर आचार्य श्री रत्नप्रभसूरि के पास दीक्षा ली । आपका त्याग अनु करणीय और तपस्या अलौकिक थी। आप लघुवय से ही पूरे बुद्धिवान थे । और दीक्षा लेने के पश्चात् आचार्य श्री रत्नप्रभसूरि की संरक्षता में रहकर आपने पूर्वो एवं अंगों का अध्ययन रुचिपूर्वक किया करते थे । आप अपनी विचक्षण बुद्धि के कारण अपने पाठ को शीघ्र सीख जाते थे। दूर दूर से लोग आपसे शंकाए निवृत करने के लिये आते थे । आपश्रीकी व्याख्यानशैली तुली हुई और मनोहर थी। आप का उपदेश आबाल वृद्ध सब ही को रोचक प्रतीत होता था । यही कारण था कि नर नरेन्द्र, एवं देव देवेन्द्र, और विद्याधर आदि आपका व्याख्यान सुनने को सदा लालायित रहते थे। आप की वाक्पटुता के कारण अहिंसा का प्रचार बहुत अधिक हुआ आप बड़े निर्भीक वक्ता थे। आप गुणों के आगार और ज्ञान के सागर थे। आपके गुणों का वर्णन करने में बृहस्पति भी असमर्थ थे। ___ उपरोक्त गुणों के कारण ही आप को यकायक श्री सम्मेतशिखर तीर्थराज की पवित्र भूमिमें आचार्य पदवी मिली थी । आप आचार्यपद के छत्तीसों गुणों को प्राप्त करलिये थे तथा शुद्ध पंचाचारको पालने का प्रबल प्रयत्न करने में संलग्न रहते थे और आप सदा इस बात का ध्यान रखते थे कि मेरे श्रमण संघ भी इस प्रकार के गुणों को सम्पदित करे । आप सब प्रन्तों में विचरण कर संघ को अमृतोपदेश का पान कराते थे। सारण वारण चोयण और परिचोयण ऐसी चार पद्धति की शिक्षा देने में श्राप अनवरत परिश्रम करते थे । आप का प्रयत्न सदैव सफलीभूत होता था । जिन प्रान्तों में आप विचरते थे यज्ञायागदि वेदान्तियाँ, वामामार्गियाँ एवं नास्तिकों को सभमा समझा कर सत्पथ पर चलने का सिद्धान्त सतर्क बताते थे । जिस प्रकार भानु के उदय होने से प्रगाढ़ तिमिर का नाश हो जाता है उसी प्रकार आपके संसर्ग से कई प्राणियों का भ्रम दूर हुआ। उधर पूर्व बङ्गाल में जहाँ कि आप दूसरीवार नहीं पधारे थे बोद्धधर्म का विस्तृत प्रचार हो रहा था, अतएव जैन धर्म की रक्षा तथा प्रचार के लिये अपने सुयोग्य शिष्यों के साथ बंगाल की ओर जाना पड़ा था। उस प्रान्त में बौद्धों के साथ कई शास्त्रार्थकर आपने स्याद्वाद धर्म को विजय का टीका प्रदान किया । बोद्ध लोग जगह जगह पर पराजित हुए ! पूर्व बंगाल में जो दूसरे साधु विहार करते थे उन्होंने भी आप को पूर्ण सहयोग दिया क्योंकि वे वहाँ की वस्तुस्थिति से खूब परिचित थे। ३५२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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