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________________ वि पू. ४०० वर्षे ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास ६-प्रखर पंडित श्रीमान् द्रोणाचार्य के शिष्य सूराचार्य ने धारा नगरी में जा कर राजा भोज की सभा के पंडितों को मंत्रमुग्ध कर दिया । इस वृतान्त के सम्बन्ध में प्रन्थों में विस्तृत प्रमाण मिलते हैं । इनका समय विक्रम की ११ वी १२ वी शताब्दी का निकटवर्ती है। ७-आचार्य उद्योतनसूरि ने अपने शिष्यों को वट वृक्ष के नीचे सूरिपद दिया; उसी दिन से षड़गच्छ की स्थापना हुई । इसका उल्लेख तत्कालीन प्रन्थों में मिलता है। इस घटना का समय १०वीं शताब्दी का है । इत्यादि अनेक प्रमाण उस समय के साहित्य में विद्यमान हैं इतना ही क्यों पर साधारण से साधारण घटनाओं के सम्बन्ध में भी विस्तृत वर्णन किया गया है । ऐसी दशा में आठवीं, दशवी, ग्यारहवीं शताब्दी में अनुमानतः माने गये लाखों मनुष्यों केधर्म परिवर्तन के संबंध में किसी भी प्रन्थ में कुछ भी उल्लेख न मिलना आपके अनुमान को कल्पित प्रमाणित करता है और साथ में यह स्पष्ट रूप से प्रमाणित हो जाता है कि ओसवाल जाति ( उपकेशवंश-महाजनसंघ ) की उत्पत्ति न तो वि० को ८ वीं शताब्दी में हुई और न १० वी ११ शताब्दी में हुई। पर इस घटना का समय इतना प्राचीन है कि जिस समय जैनों का कोई भी इतिहास व दूसरी घटना पुस्तकारूढ नहीं हुई थी और न उस समय का कोई शिलालेख ही मिलता है। उस समय के आचार्य एवं मुनिवर्ग सब ज्ञान को कंठस्थ ही रखते थे और अपनी शिष्य परम्परा को भी यही शिक्षा दी जाती थी कि वे गुरु परम्परा से ज्ञान मुंहजबानी ही रखते थे। दूसरों के लिए तो क्या पर जो जैन धर्म के मुख्य आगम थे वे भी मुंहजबानी ही रखते थे। यदि उस समय की तमाम घटनाओं के लिए केवल शिलालेखों द्वारा ही निर्णय किया जाता हो तो हमारे परमपूज्य जम्बुस्वामी, प्रभवस्वामी, शय्यंभव प्राचार्य संभूतिविजय और यशोभद्रादि बहुत से ऐसे आचार्य हुए हैं कि शिलालेखों में उनका नाम निशान तक भी नहीं है तो क्या हम उनको भी नहीं मानेंगे ? यह कदापि नहीं हो सकता। ओसवाल जाति का प्राचीन शिलालेख नहीं मिलने से तो यह जाति उल्टी प्राचीन ही ठहरती है क्योंकि जैन शिलालेखकाल विक्रम की दशवीं शताब्दी से प्रारम्भ होता है अतः इस समय के बहुत पूर्व इस जातिका जन्म हुआ था अतः उस समय का शिललेख न मिलना स्वाभाविक ही है । अब रही पट्टावलियों की बात । हां, पट्टावलिये घटना समय की नहीं है। इसका कारण उस समय हमारे अन्दर लिखने की पद्धति नहीं थी जब मूल आगम ही वीर निर्वाण से १००० वर्ष बाद लिखे गये थे तो पट्टावलियां इसके पूर्व लिखी जाना सर्वथा असम्भव ही है, पर इसले पट्टावलियों की महत्ता एवं सत्यता को क्षति नहीं पहुँचती है । कारण, पट्टावलियें भी गुरु परम्परा से आये हुए ज्ञान के आधार से ही बनी हैं । यदि २५०० वर्षों का इतिहास लिखते समय हमारी पट्टावलियों को दूर रख दी जाय तो हमारा इतिहास नहीं के बराबर है । हमारी पट्टावलियों में केवल जैनधर्म सम्बन्धी ही उल्लेख नहीं है पर अन्य भी इतने उपयोगी लेख हैं कि वे दूसरी जगह खोजने पर भी नहीं मिलते हैं। देखिये विद्वान लोग क्या कहते हैं: ___ "इतिहास व काव्यों के अतिरिक्त वंशावलियों की कई पुस्तकें मिलती हैं + + तथा जैनों की कई एक पटावलियां आदि मिलती हैं । ये भी इतिहास के साधन हैं । पं०गौ०ओ० “राजपूताना का इतिहास पृ० १." अतः इतिहास लिखने में पट्टावलिये एक साधन है । हाँ, जब से गच्छों एवं समुदाय के भेद हुये और कई लोगों ते मताग्रह के कारण पट्टावलियों में गड़बड़ कर दी है उसके लिये हमारा कर्त्तव्य है कि हम उनका संशोधन करें न कि एकाध पट्टावली में त्रुटियें देख सब पट्टावलियों का अनादर कर बैठे। १८८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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