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________________ ३८० सूरीश्वर और सम्राट्। ऐसे उच्चत्तम गुणोंके भंडार थे । बार बार अपने जीवनमें आनेवाली तकलीफोंको उन्होंने जिस सहनशीलताके साथ झेली हैं वे उनके जीवनकी सार्थकताको बताती हैं। गुजरात जैसे रम्य और परम श्रद्धालु प्रदेशको छोड़ना; अनेक प्रकारके कष्ट उठाते हुए फतेहपुरसीकरी तक जाना; चार बरस तक उस प्रदेशमें रहना; अकबरके समान बादशाहको अपना भक्त बनाना और सारे साम्राज्यमेंसे छ:महीने तकके लिए जीवहिंसा बंद करवाना क्या उनके जीवनकी कम सार्थकता थी ? उनका समभाव कैसा था ? इतने ऊँचे दर्ने तक पहुंचने पर भी वे कैसी नम्रता विवेक, विनय और लघुता रखते थे ? और उनकी गुरुभक्ति कैसी थी ! इनका उत्तर जब उनके जीवन प्रसंग देखते हैं तब हम आनंदसे कह उठते हैं-जीवन यही धन्य है ! हीरविजयसूरि अपने साधुधर्ममें कितने दृढ थे और अपने निमित्त तैयार की गई चीजोंका उपयोग नहीं करनेकी वे कितनी सावधानी रखते थे इस संबंधकी केवल एक घटनाका हम यहाँ उल्लेख करेंगे। एक बार सूरिजी अहमदाबादके कालूपुरके उपाश्रयमें आये और श्रावकोंसे एक गोखड़ेमें-ताकमें-जो नवीन बनाया गया थाबैठकर उपदेश देनेकी अनुमति चाही। श्रावकोंने कहा:-" महाराज! हमसे पूछनेकी कोई आवश्यकता नहीं है। यह गोखड़ा तो खास आपहीके लिये बनवाया गया है । " सूरिजीने कहाः-" तब तो यह हमारे निरुपयोगी है। क्योंकि हमारे निमित्तसे जो चीज तैयार कराई जाती उसको हम काममें नहीं ला सकते ।" इसके बाद वहाँ लकड़ीकी एक चौकी पड़ी थी उस पर बैढ कर सूरिजीने व्याख्यान दिया । एक बार गोचरीमें किसी श्रावकके यहाँसे खिचड़ी आई। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003208
Book TitleSurishwar aur Samrat Akbar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyavijay
PublisherVijaydharm Laxmi Mandir Agra
Publication Year
Total Pages474
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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