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________________ ६८६ तत्त्वनिर्णयप्रासादहै, प्रत्यक्ष प्रमाणसें ऐसे जानते हुए भी, फिर, प्रत्यक्ष, निषेधक नही है; ऐसे कथन करनेवालेको क्यों नही उन्मत्त कहने चाहिये ? इति सिद्ध हुआ प्रत्यक्षबाधित तुमारा पक्ष. । और अनुमानकरके बाधित, ऐसें है. प्रपंच मिथ्या नहीं है, असत्सें विलक्षण होनेसें; जो असत्से विलक्षण है, सो, मिथ्या नहीं है. यथा आत्मा. तैसाही यह प्रपंच है, तिसवास्ते, प्रपंच, मिथ्या नही.। तथा प्रतीयमान जो तुमारा हेतु है, सो ब्रह्मात्माके साथ व्यभिचारी है, क्योंकि, ब्रह्मात्मा प्रतीयमान तो है, परंतु मिथ्यारूप नहीं है. जेकर कहोगे ब्रह्मात्मा अप्रतीयमान है, तब तो, ब्रह्मात्मा वचनोंका गोचर न होगा; जब वचनगोचर नही, तबतो, तुमको गुंगे बननाही ठीक है. क्योंकि, ब्रह्मविना अपर तो कुच्छ हैही नहीं, और जो ब्रह्मात्मा है, सो प्रतीयमान नहीं है; तो फिर तुमको हम गुंगेके विना और क्या कहैं ? और प्रथम अनुमानमें जो तुमने सीपका दृष्टांत दिया, सो साध्य विकल है. क्योंकि, जो सीप है, सो भी प्रपंचके अंतर्गतही है; और तुम तो, प्रपंचको मिथ्यारूप सिद्ध करा चाहते हो!. यह कदापि नही हो सकता है कि, जो साध्य होवे, सोही, दृष्टांतमें कहा जावे. जब सीपकाही अबतक सत्असत्पणा सिद्ध नहीं तो, उसको दृष्टांतमें कैसें ग्रहण किया? तथा प्रथम जो तुमने प्रपंचको मिथ्या सिद्ध करनेवास्ते अनुमान किया था, सो अनुमान, इस प्रपंचसे भिन्न है ? वा आभिन्न है ? जेकर कहोगे भिन्न है, तो फिर सत्य है ? वा असत्य है ? जेकर कहोगे सत्य है तो, तिस सत्य अनुमानकीतरें प्रपंचको भी सत्यपणा होवे. जेकर कहोगे असत्य है, तो फिर क्या शून्य है ? वा अन्यथा ख्यात है ? वा अनिर्वचनीय है ? प्रथम दोनों पक्ष तो, कदापि साध्यके साधक नहीं है. मनुष्यके शृंगकीतरें (१) तथा सीपके रूपेकीतरें (२) और तीसरा जो अनिर्वचनीय पक्ष है, सो भी, असमर्थ है; अर्थात् साध्यको साध नही सक्ता है. अनिर्वचनीयको असंभविपणेकरके कथन करनेसें. . . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003207
Book TitleTattvanirnaya Prasada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages878
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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