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________________ (५६) मको पूज्यजीने कराया है, परंतु मुझको तो नहीं कराया है ? मैं तुमको मिला, तुम मुझे नहीं मिले, इसवास्ते तुमारा नियम भंग नहीं हैं. "तब श्रीविश्नचंदजीने कहा कि “महाराजजी! मनसें तो हम सदाही आपके साथ मिले हुये हैं. क्योंकि, आपने शुद्ध सनातन जैनमतका यथार्थ स्वरूप दिखलाके हमारे ऊपर जो उपकार किया है, हम इसका बदला भवभवमें भी नहीं दे सकते हैं. परंतु क्या करें? अपनी मतलब सिद्ध करनेके वास्ते, ऊपर ऊपरसें जुदाई रखते हैं. यदि इतनी भी जुदाई न रखे तो, पूज्यजी नाराज हो जाते हैं; और उनके नाराज होनेसें अपना कार्य, सिद्ध होना मुश्किल हैं.” तब श्रीआत्मारामजीने कहा कि “खबरदार? पूज्यजीसे अलग होनेका इरादा,कदापि न करना;जबतक यह विद्यमान है, इनको दुःख न होना चाहिये, पीछे जो तुमारी मरजी होवे, तुम करना, क्योंकि तुमारे अलग होनेसें पूज्यजीको ज्यादा दुःख होवेगा. और तुम जो कार्य करना चाहते हो, वह भी पूर्ण न होवेगा. ” इत्यादि हित शिक्षा देकर श्रीआत्मारामजी श्रीविश्नचंदजीको हाथ पकडके अपने मकानमें जहां आप उतरेथे, लेगये, और बडे आनंदपूर्वक ज्ञानालाप किया. दूसरे दिन श्रीविश्नचंदजी जगरांवासें विहार करके “ लुधीआना” तरफ गये, और श्रीआत्मारामजीने भी लुधीआने जानेकेवास्ते श्रीविश्नचंदजीसें एक दिन पीछे विहार जगरांवासे किया. परंतु रस्तेमें वर्षाके सबबसें दैवयोगसें अनायासही सात कोशपर “बोपारामा ” गाममें, दोनोंका मिलाप होगया. वहां कोई भी ओसवाल ढुंढकका उपद्रव न होनेसें, दोनोंही अपने साथके साधुओं सहित एकही मकानमें उतरे, और खूब आनंदसें ज्ञानगोष्टी करते रहैं. सध्याका प्रतिक्रमण भी, एकत्रही किया. तब श्रीआत्मारामजीने कहा कि, " तो आज मैं तुमको श्रीमहावीर स्वामीके शासनका प्रतिक्रमण विधि सहित कराउं.” प्रतिक्रमणका विधि देखके, सब साधु चकित हो गये, और कहने लगे कि,"महाराज हमारे नसीबमें भी कभी ऐसी विधि कहनेका दिन आवेगा और यह जैनाभास ढुंढक मनःकल्पित फासी हमारे गलेसें फाटी जायगी? ” तब श्रीआत्मारामजीने कहा, “धैर्य रखो, हिम्मत मत हारो, सब अच्छा होजायगा. ” दूसरे दिन विश्नचंदजी वगैरह, पमाल होकर लुधीआने पहुंचगये. और श्रीआत्मारामजी, एक दिन पीछे लुधीआना शहेरमें पहुंचे, यहां भी जूदे जूदे मकानमें उतरे. परंतु श्रीआत्मारामजीका व्याख्यान सुननेको, निरंतर श्रीविश्नचंदजी वगैरह आतेथे. जिनमेंसें एक साधु " धनैयालाल, नामा जिसको ऐसी उंधी पाटी पढा रखीथी कि, आत्माराम जहरके बूटे लगाता है. साधुओंके बहुत कहनेसें एक दिन कथा सुनने गये. सुनकर कहने लगे कि,” यह तो सत्य सत्य कथन करते हैं. इनको क्यों असत्प्रलापी कहते हैं ? ऐसा अपने मनसे विचारके “गणेशजी नामा अपने गुरु भाईसें पूछां कि, "तुम जो मेरे दूसरे साधुओंके पास अनिष्ठाचरण कराते हो और तुम खुद भी करते हो, सो ऐसा काम करना, किस जैनमतके शास्त्रमें लिखाहै ? वो पाठ मुझे दिखलादो, अन्यथा आज पीछे ऐसा काम मैं कभी भी न करूंगा.” तब गणेशजी साधुने कहा कि, “भाई ! साधुओका काम ऐसेही चलता है.” तब घनैयालाल ने कहा कि “पहेले चलगया सोच लंगया अब आगे तो जबतक शास्त्रका पाठ नहीं दिखावोगे तबतक नहीं चलेगा. ऐसा कहकर घनैयालालने भी श्रीआत्मारामजीका कथन सत्य सत्य अंगिकार कर लिया. यह बात अमर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003207
Book TitleTattvanirnaya Prasada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages878
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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