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________________ आप मनःकल्पित वेष धारण करके निकाला गयाहै."श्रीआत्मारामजीको तो,प्रथमसेंही कितनीक बातोंका शक था.अबतो सर्वथा निश्चय होगया कि,निश्चयही यह ढुंढकमत बनावटी है.और सनातन जैनधर्मसें उलटा है. और भगवतीजी, अनुयोगहार,समवायांग, नयचक्र वगैरह शास्त्रोंमें “ आवश्यक" " विशेषावश्यक" की साक्षी दी है और लिखा भी है कि,आवश्यकका इतना मूलपाठ है, इतनी नियुक्ति है, इतना भाष्य है, इतनी चूर्णि है, इतनी टीका है. और ढुंढकके माने आवश्यकमें कितनीक बातें जे शास्त्रोंमें है, वे नहीं है, और ढुंढक आवश्यक गुजराती भाषामें है, और दूसरे शास्त्र प्राकृतमें है. इसवास्ते आवश्यक सूत्र भी प्राकृत भाषामें होना चाहिये. इसतरह श्री आत्मारामजीकी ढुंढकमतसें अनास्था होनी शरू हुई. तोभी अधिकतर निश्चय करनेके वास्ते श्रीआत्मारामजीने बहुत शास्त्रोंकी पुनरावृत्ति की. तथापि अंतमें ऊंटके मेंगणेकी तरह ढुंढकमतकी पोल निकली. इसवास्ते श्रीआत्मारामजीने निश्चय किया कि, " मैं अपनी शक्तिके अनुसार भव्य जीवोंके आगे सत्य सत्य बात प्रगट करूंगा, जिसको रुचेगा, वो ग्रहण कर लेवेगा." ऐसा निश्चय करके श्रीआत्मारामजी आग्रेसें विहार करके दिल्ली आये, वहां श्री विनचंदजी मिले. और श्रीआत्मारामजीसें शास्त्र पढने लगे और साथही साथ विहार करते हुए मालेर कोटलामें आये. एक दिन श्रीविश्नचंदजी, पेशाब करके हाथ विनाही धोये शास्त्र पढने लगगये. इससे श्रीआत्मारामजीने गुस्से होकर विश्नचंदजीको कहा कि, “खबरदार ! आज पिछे कबी भी ऐसा काम नहीं करना. अर्थात विना धोये हाथ पेशाब करके शास्त्रको नही लगाना.” प्रत्यक्षमें तो श्रीविश्नचंदजी, पूर्वोक्त श्रीआत्मारामजीका कहना मंजुर करके मौन होरहे; परंतु दिलमें विचार करने लगे कि, “रत्नचंदजीकी संगतसे इनकी श्रद्धा फरक पडगया है, इसी वास्ते यह ऐसे कहते हैं. क्योंकि, मेरे गुरु रामबक्षजी, और उनके गुरु अमरसिंहजी पूज्यजी महाराज वगैरह सव ढुंढक साधु, पेशाबसें शुद्धि करना, आहारके पात्रोमें लेकर वस्त्रादि धोना आदि करते हैं. परंतु मुजे तो इनके पास पढना है इसवास्ते कितनेक दिन जिस तरह यह कहते हैं, इसी तरह करना चाहिये. कोटलामें श्रीआत्मारामजीने, पंडित " अनंतरामजी" में शेष व्याकरण पढना शुरू किया;और एक महीने के बाद विहार करके रायका कोट होकर जगरांवां गाममें आये. वहां " चोथमल्ल के पत्र में अपने उपकारी विद्यागुरु, श्रीरत्नचंदजीका संवत् १९२१ का जेठ मासमें स्वर्गवास होना सुनकर, बहुत अफसोस किया. अंतमें अपने ज्ञानबलसें अफसोस दूर करके, श्रीआत्मारामजी जगरांवांसें विहार करके शहर "लुधीआना में आये. वहां श्रावक “ सेढमल्ल " " गोपीमल्ल 7 वगैरहसें अजीवमतकी श्रद्धा छुडवाई. और मासकल्पके बाद लुधीआनासे विहार करके कोटलामें गये. और संवत् १९२१ का चौमासा वहां किया. इस चौमासेमें श्रीआत्मारामजीने चंद्रिका, कोष,काव्य, अलंकार, तर्कशास्त्र वगैरहका अभ्यास किया, तथा श्री “ विश्नचंदजी'को भी,शास्त्रानुसार चर्चा करके यथार्थ सत्य मार्गका बोध कराया. चौमासे बाद श्रीआत्मारामजी, लुधीयाना होके “ देशु ”नामा गाममें गये. वहां एक यतिके पुस्तकोंमेसें “श्रीशिलांकाचार्य विरचित श्रीआचारांग सूत्र वृत्ति (टीका) की प्रति श्रीआत्मारामजीको मिली. इस प्रतिके मिलनेसें श्रीआत्मरामजीको ऐसा आनंद प्राप्त हुआ कि, जैसें मरुदेशमें प्यासेको अमृत मिलनेसें शांति होवे ! तहांसें विहार करके राणीया,रोडी, होकर "सरसा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003207
Book TitleTattvanirnaya Prasada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages878
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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