SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 44
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ॥ श्रीपरमात्मने नमः॥ उपोद्घात विदित होवेकि, इस संसारसमुद्र में सतत पर्यटन करनेवाले प्राणियोंको, जन्ममरणादिक अत्तुन दुःखोंमेंसे मुक्त करनेवाला, केवल एक धर्मही है. अन्यमतावलंबीयोंके शास्त्रोंमें भी, ऐसेंही कहा हुआ है. ऐसा जो धर्म, उसका मूल तो सर्वाशयुक्त दयाही है; दयाकरके धर्मकी प्राप्ति होती है, और परिपूर्ण धर्मकी प्राप्ति हुए, जीव, मोक्षको प्राप्त होता है. इसवास्ते दया सर्वोत्कृष्ट पदार्थ है. सर्वमतोंवाले दयाका उपयोग करते हैं, परंतु सर्वांश दयाका उपयोग करते नहीं है। इसीवास्ते उनको धर्मपदार्थका जैसा चाहिये, वैसा लाभ नही प्राप्त होता है. दयाका सर्वांश उपयोग तो, केवल जैनदर्शनमेंही स्वीकार किया है; तिससेंही जैनदर्शन, धर्मधुरीसर कहा जाता है. इसवास्ते दयाका सर्वाश उपयोग करना आवश्यक है. क्योंकि, जब दया पदार्थ सोयुक्त पालनेमें आवे, तबही तिससे धर्मोपलब्धि होवे; अन्यथा कदापि नही. सर्वमतावलंबि. योको दया मान्य है, तथापि उनके समझनेमें फरक होनेसें, वे, श्रेष्ठतापूर्वक दयाका सर्वांशउपयोग, नही करसकते हैं. यह बात, इस ग्रंथके अग्रेतनव्याख्यानसे सिद्ध हो जायगी; तथा श्रीसूत्रकृतांगादिशात्रोंमें भी वर्णन किया है कि,-कितनेक (अन्यधर्मी) कहते हैं, प्राणी जबतक शरीरमें सुखी होवे, तबतक उसके ऊपर दया करनी, परंतु जब वह, व्याधिग्रस्तस्थितिमें पीडित होवे, वबतो, उस प्राणीका वध करके, पीदासे मुक्त करना, सोही दया है. कितनेक कहते हैं कि, सूक्ष्म, अथवा स्थूल जे प्राणी, मनुष्योंको दुःख देते हैं, उनको मारदेना, यही दया है. कितनेक यज्ञयागादिमें प्राणियोंका नाश करनेमेंही धर्मधुरंपरता, और दया मानते हैं. या वेदविहिता हिंसा नियतास्मिंश्चराचरे ॥ अहिंसामेव तां विद्याद्वेदाधर्मो हि निर्वभौ ॥ इत्यादि वचनात्. भावार्थ:-इस चराचर जगत्में जो वेदोक्त हिंसा नियत की गई है उसको अहिंसाही जानना चाहिये, क्योंकि, वेदसेंही धर्मकी उत्पत्ति हुई है, इत्यादि. __ और कितनेक अतिसूक्ष्मादि प्राणी, जिसका स्वरूप दृष्टिगोचर नही, उसकी किंचित्मात्र भी चिंता नहीं करते हैं; किंतु केवल स्थूलप्राणियोंके ऊपरही दया करनेमें दया मानते हैं. ऐसे अनेक प्रकारसे मनःकल्पित दयाका उपयोग, प्रायः अन्यमतावलंबी करते हैं; तथापि, 'वे, स्वदया १, परदया २, द्रव्यदया ३, भावदया ४, निश्चयदया ५, व्यवहारदया ६, स्वरूपदया ७, अनुवंधदया ८, इत्यादि दयाके जो अनेक भेद जैनग्रंथोंमें सविस्तर वर्णन किये हैं, तदनुसार प्रत्त होके, दयाका स्वरूप, नयशैलीपूर्वक समझते नहीं हैं। यही उनकी मनिमें विभ्रम है, और ऐसी भ्रमितमतिवाले दर्शनियोंका मत, कदापि शुद्ध नहीं. किंतु, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003207
Book TitleTattvanirnaya Prasada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages878
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy