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________________ ( २० ) वृथा जागरणं हरेः । वृथा एकादशी प्रोक्ता वृथा च पौष्करी यात्रा कृत्स्नं चांद्रायणं वृथा ॥ २॥ चातुर्मास्ये तु संप्राप्ते रात्रिभोज्यं करोति यः तस्य शुद्धिर्न विद्येत चांद्रायणशतैरपि ॥ ३ ॥ अर्थ - मदिरा और मांस इनको खाना और रातको भोजन तथा कन्दोंको भक्षण करना इनको जो करते हैं, तिनको तीर्थयात्रा, और ये सभी व्यर्थ है और उनका एकादशी व्रत और हार निमित्त जागरण (रातको जागना, और पुष्करराजको यात्रा और सभी चान्द्रायण व्रतविशेष ) ये वृथा होते हैं. चौमासके आने पर जो रात्रिको भोजन करता है, उसको सैकडों चान्द्रायण व्रतोंसे भी शुद्धि नहीं होती । शिवपुराण | यस्मिन् गृहे सदा नित्यं मूलकं पाच्यते जनैः स्मशानतुल्यं तद्वेश्म पितृभिः परिवर्जितम् ॥ मूलकेन समं चान्नं यस्तु भुङ्क्ते नराधमः । तस्य शुद्धिर्न विद्येत चांद्रायणशतैरपि ॥ भुक्तं हालाहलं तेन कृतं चाभक्ष्यभक्षणं । वृन्ताकभक्षणं चापि नरो याति च रौरवं ॥ अर्थ -- जिसके घर नित्य मूल पकाया जाता है उसका घर विना प्रेत स्मशानतुल्य है । जो मनुष्य मूलके साथ भोजन खाता है उसका एकसौ चांद्रायण व्रत करनेसें भी पाप दूर नहीं होता है | मांसतुल्य जिसने अभक्ष्य भक्षण किया उसने हालाहल जहर भक्षण किया और जिसने बैंगन खाया वह नर रौरव नरकमें जाता है । वगैरह बहोत प्रमाण है. अफसोस है ! इनके शास्त्रों में ऐसे स्पष्ट प्रमाण होते हुए भी, इसी कंदमूलको एकादशी आदि व्रतोंमें अन्यमति उमंगसें खाते हैं | Jain Education International जैन धर्मकी अनादिसिद्ध करनेको ऐसे बहोत प्रमाण हैं. कहां तक लिखा जाय ? इस समय में जैन श्वेतांवरमतमें मुनि श्रीमद् विजयानंदसूरीश्वरजी ( आत्मारामजी) महाराज एक बडे विद्वान हुए हैं, उनोंने अपनी अपूर्व विद्वत्तासें धर्मकी योग्य सेवा बजाके वर्त्तमान समय में जैनीयोंमें अग्रेसर पद प्राप्त किया है. इतनाही नहीं परंतु अन्य मतावलंबीओंमें, युरोप अमेरिकाके पंडितों में भी इन्होंने बडा नाम और मान पाया है. धर्म में धूरी समान, क्रियामें अचलायमान, अतिशय श्रद्धावान, परोपकार में तत्पर, स्वभावसें शांत, कर्मअरिजीतने में सामर्थ्यवान, ज्ञानमें प्रबल, इत्यादि गुणसंपन्न महात्माके अपने अंत समयमें बनाये हुए इस तत्त्वनिर्णयप्रासाद ग्रंथको पढनेको, मनन करनेको, उनका चरित्र, और चित्रद्वारा उनकी मुखमुद्रा निहारने को कौन भाग्यवान् उत्सुक नहिं होगा ? सर्व होंगे. For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003207
Book TitleTattvanirnaya Prasada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages878
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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