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________________ (७८) अंजनशिलाका और श्रीधर्मनाथ स्वामीकी प्रतिष्ठा करके बड़े आनंदको प्राप्त हुए. और जेठ वदि छठको, सनखतरा से गुजरांवालेके श्रावकों की विनती मान्य कर के, विहार करके, “किलाशोभा सघका " होकर, शहेर " पशरूर" में पधारे. वहां, प्रथम पांच सात दिन रहनेका इरादा था; परंतु सनातन जैनधर्मानुरागी के अभावसे, उश्न जलके न मिलनेसें जिस दिन गये, उसही दिन अनुमान चार बजे विहार कर दिया. इस वखत नगरके क्षत्रीय ब्राह्मण वगैरह लोकोंने, वहांके रहीस ढुंढक मतानुसारी भावडोंका, बहुत तिरस्कार किया. जिससे कई भावडे लाचार होकर, और कितनेक अंतरंग श्रद्धावाले, अपने बापदादा के डरसें प्रकटपणे कारवाई नहीं करनेवाले, आकर बहुत विनती करके कहने लगे कि, "महाराजजी साहिब ! हमारा गुन्हा माफ कीजिये; आगेको ऐसा काम नहीं होगा." परंतु कालके जोरसे, उस वखत, इन महात्माके मनमें, बिलकुल करुणा नहीं आई. हाय ! काल कैसा निष्करुण है कि, जो अपने आने के समयमें, करुणासागरको भी निष्करुण, करदेता है ! पशरुर विहार करके छछरांवाली, सतराह, सेरांवाली, होकर वडाला गाम में पधारे. तहां रा त्रिके पिछले प्रहर में दम (श्वास) चढना शुरू होगया. इस श्वास रोगने इतना जोर एकदम करदिया, कदम भरना भी, मुश्कल होगया. तथापि इस रोगको, श्रीमहाराजजी साहिवने, कुच्छ नहीं गिना; मनोबल से चलते रहे. परंतु शरीरने, जवाब दे दिया. इसवास्ते वडाले से गुजरांवालेका एक दिनका रस्ता भी, तीन दिनमें समाप्त किया, और जेठ सुदि दृजके रोज बडी धूमधाम सें श्रावक लोकोंने नगर में प्रवेश कराय के श्रीमहाराजजी साहिबको उपाश्रयमें उतारे. सोला (१६) वर्ष पीछे श्रीमहाराजजी साहिबका आगमन, इस शहेर में होनेसें लोकोंको बIn उत्साह प्राप्त हुआ था. कितनेही जिज्ञासु, चरचा वार्त्ता करते रहे. पूर्वोक्त रोगको चिकित्सा कराने के वास्ते, अन्य साधुओंने कहा. परंतु कालकी प्रबलतासें, चिकित्सा करानेको मान्य नही किया. इतनाही नहीं, बलकि साधुओंसे कहने लगे कि, "ऐसे थोडे थोडे रोग पीछे क्या दवाई करानी ? ” साधुओंने भी " विनाशकाले विपरीत बुद्धिः " इस कहावत मुजब, श्रीमहाराजजीका कहा, जो इस वखत मान्य नहीं करने योग्य था वो भी मान्य करलिया, जिसका फल थोडेही दिनोंमें,साधु और श्रावकोंको मिलगया. अर्थात् संवत् १९५३ जेठ सुदि सप्तमी मंगलवार की रात्रि को, प्रतिक्रमण करके, अपना नित्य नियम संथारा पौरुशी वगैरह कृत्य करके सो गये. अनुमान रात्रिको बारा बजे नींद खुलगई, और दम उलट गया. दिशाकी हाजत होनेसे दिशा फिरके शुचि करके, आसन ऊपर बैठे हुए, “अर्हन् ! अर्हन् ! अर्हन् ! " ऐसे तीन वेरी मुख से उच्चारण करके, “लो भाई, अब हम चलते हैं, और सबको खमाते हैं. ऐसा कहके, पुनः "अर्हन्" शब्द उच्चारण करते हुए, अंतर्ध्यान होगये. इस वखत साधु श्रावकोंको जो दुःख पैदा हुआ, वाfth अगोचर है. इस दुःखको सहन न करके, चंद्रमा भी, मानु अपनी चांदनी को संकोचके, अहश्य होगया होवे ऐसे अस्त होगया ! और अज्ञान रूप भाव अंधारा, अब ज्ञान सूर्य के अस्त होनेसे प्रकट होगया, ऐसा मालूम करनेको, द्रव्य अंधारा, होगया. दुर्जन के हृदयवत् काली रात्रिको + जिस बखत् महाराजका स्वर्गवास हुवाथा, उसवखत अष्टमी पहिलेसेही लग चूकी थी, ईस लिये कालतिथि जेठ सुदि अष्टमी गीनीगई. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003207
Book TitleTattvanirnaya Prasada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages878
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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