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________________ ७२ सम्यक्त्वशल्याद्धार उत्थापक होने से भवसमुद्र में डूबने बाले हैं, तो वह दूसरों को कैसे तार सकें ? यह दृष्टांत समझ लेना। फिर जेठमल लिखता है कि "अंबड के बारह व्रत सूत्रपाठ में कहे हैं" सो भी असत्य है । जैसे आनंद के बारह व्रत कहे हैं, वैसे अंबड के व्रत किसी जगह भी सूत्र में नहीं कहे हैं, यदि कहे हैं तो सूत्रपाठ दिखाओं । प्रश्न के अंत में जेठमल जैन दर्शनियों को मिथ्यात्व मोहनी कर्म का उदय लिखता है, सो आप उस को ही है, और इसी वास्ते उसने पूर्वोक्त असत्य लिखा है ऐसे सिद्ध होता है । जैसे कोई एक पुरुष शीघ्रता में घृत खरीदने को जाता था, चलते हुए उस को तृषा लगी, इतने में किसी औरत के पास रास्ते में उस ने पानी देखा, तब वह वोला कि मुझे 'घृत' पिला । यद्यपि उस को पीना तो पानी था परंतु अंतःकरण में घृत ही घृत का ख्याल होने से वैसे बोला गया । ऐसे ही जेठमल को भी मिथ्यात्व मोहनी का उदय था, जिस से उसने ऐसे लिख दिया है, ऐसे निश्चय समझना। इति । १८. सात क्षेत्र में धन खरचना कहा है : (१८) वें प्रश्नोत्तर में जेठमल ने लिखा है कि "सात क्षेत्र किसी ठिकाने सूत्र में नहीं कहे हैं" उत्तर - भत्तपञ्चक्खाण पइन्ना सूत्र के मूलपाठ में (१) जिनबिंब, (२) जिनभवन, (३) शास्त्र, (४) साधु, (५) साध्वी, (६) श्रावक, (७) श्राविका, ये सात क्षेत्र कहे हैं । सो क्या ढूंढक नहीं जानते हैं ? यदि कहोगे कि हम यह सूत्र नहीं मानते हैं, तो नंदिसूत्र क्यों मानते हो ? क्योंकि श्रीनंदिसूत्र में इस सूत्र का नाम लिखा हैं। इस वास्ते भत्तपञ्चक्खार पइन्ना सूत्रानुसार सात क्षेत्र में गृहस्थी को धन खरचना सो ही फलदायक है । १ आनंद श्रावक के भी बारह व्रत उपासकदशांगसूत्रा के मूलपाठ में खुलाया नहीं हैं। श्रीभत्तपञ्चक्खाण सूत्र का पाठ यह है :अनियाणोदारमणो हरिसवसविसदकंबुयकरालो । पूएई गुरु संघ साहम्मी अमाइ भत्तीए ।।३०।। निअदव्वमउव्वजिणिंद भवण जिणबिंब वरपइठ्ठासु । विअरइ पसत्थ पुत्थय सुतित्थ तित्थयर पूआसु ।।३१।। तथा अध्यात्मकल्पद्रुम नामा शास्त्र में धर्म में धन लगाना ही सफल कहा है तथाहिःक्षेत्रवास्तु धनधान्य गवाष्वैर्मेलितैः सनिधिभिस्तनुभाजा । क्लेशपापनरकाभ्यधिकः स्यात् को गुणो यदि न धर्मनियोगः ।। क्षेत्रेषु नो वपसि यत्सदपि स्वमेत द्यातासितत्परभवे किमिदं गृहीत्वा तस्यार्जनादिजनिताघचयार्जिता ते भावी कथं नरकदुःखभराञ्च मोक्षः तथा श्रीठाणांगसूत्र के चौथे ठाणे के चौथे उद्देश में श्रावक शब्द का अर्थ टीकाकार महाराजने किया है, उसमें भी सात क्षेत्र में धन लगाने से श्रावक बनता है, अन्यथा नहीं, तथाहि :श्रान्ति पचन्ति तत्त्वार्थ श्रद्धानं निष्ठां नयन्तीति श्रास्तथा वपन्ति गुणवत्सप्तक्षेत्रेषु धनबीजानि निक्षिपन्तीति वास्तथा किरन्ति क्लिष्टकर्मरजो विक्षिपन्तीति कास्ततः कर्मधारये श्रावका इति भवति ।। यदाहः श्रद्धालुतां श्राति पदार्थ चिन्तनाद्धनानि पात्रेषु वपत्यनारतं । किरत्यपुण्यानि सुसाधु सेवनादथापि तं श्रावकमाहुरंजसा । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003206
Book TitleSamyaktva Shalyoddhara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Punyapalsuri
PublisherParshwabhyudaya Prakashan Ahmedabad
Publication Year1996
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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