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________________ ७० सम्यक्त्वशल्योद्धार पासत्थे, वेषधारी, निन्हव आदि को वंदना नमस्कार करने का त्याग तो है ही । यह बाबत पाठ में नहीं कहा तो इस में क्या विरोध है ? प्रश्न के अंत में जेठमल ने लिखा है कि "आनंद श्रावक ने अरिहंत के चैत्य तथा प्रतिमा को वंदना की हो तो बताओ" इस का उत्तर-प्रथम तो पूर्वोक्त पाठ से ही उसने अरिहंत की प्रतिमा की वंदना पूजा की है, ऐसे सिद्ध होता हैं, तथा श्रीसमवायांगसूत्र में सूत्रों की हुंडी है उस में श्रीउपासकदशांग सूत्र की हुंडी में कहा है कि - से किं तं उवासगदसाओ उवासगदसासूणं उवासयाणं नगराई उजाणाइं चेइयाई वणखंडा रायाणो अम्मापियरो समोसरणाधम्मायरिया ।। ___ अर्थ - उपासकदशांग में क्या कथन है ? उत्तर-उपासकदशांग में श्रावकों के नगर, उद्यान, 'चेइआई' चैत्य अर्थात् मंदिर, वनखंड, राजा, माता, पिता, समोसरण, धर्माचार्यादिकों का कथन है । इससे समझना कि आनंदादि दश श्रावकों के घर में जिनमंदिर थे और उन्हो ने जिनमंदिर कराये भी थे, और वह पूजा वंदना आदि करते थे, यद्यपि उपासक दशांग में यह पाठ नहीं है। क्योंकि पूर्वाचार्यों ने सूत्रों को संक्षिप्त कर दिया है। तथापि समवायांगजी में तो यह बात प्रत्यक्ष है। इस वास्ते जरा ध्यान दे कर शुद्ध अंतःकरण से खोज करोगे तो मालूम हो जावेगा कि आनंदादि अनेक श्रावकों ने जिन प्रतिमा पूजी है सो सत्य है। इति । १७. अंबड श्रावक ने जिनप्रतिमा वांदी है : १७वें प्रश्नोत्तर में जेठमलने अंबड तापस के अधिकार का पाठ आनंद श्रावक के पाठ के सदृश ठहराया है सो असत्य है इस लिये श्रीउववाइसूत्र का पाठ अर्थसहित लिखते हैं - तथाहिः - ___ अंबडस्सणं परिवायगस्स नो कप्पइ अण्णउत्थिए ना अण्णउत्थियदेवयाणी ना अण्णउत्थियपरिग्गहियाइं अरिहंत चेइयाइं वा वंदित्तए वा नमंसित्तए वा णण्णत्थ अरिहंते वा अरिहंतचेइआणि वा ।। अर्थ - अंबड परिव्राजक को न कल्पे अन्य तीर्थी, अन्य तीर्थी के देव और अन्य तीर्थी के ग्रहण किये अरिहंत चैत्य जिनप्रतिमा को वंदना, नमस्कार करना, परंतु अरिहंत ओर अरिहंत की प्रतिमा को वंदना नमस्कार करना कल्पे । ___ इस पूर्वोक्त पाठ को आनंद के पाठ के सदृश जेठमल ठहराता है परंतु आनंद गृहस्थी था और अंबड संन्यासी अर्थात् परिव्राजक था, इस वास्ते इन दोनों का पाठ एक सरिखना नहीं हो सकता । तथा आनंद का पाठ हमने पूर्व लिखा दिया है । १ टीका - अन्नउत्थिएवत्ति अन्ययूथिका अर्हत्संघापेक्षया अन्ये शाक्यादयः चेइयाइंति अर्हचैत्यानि जिनप्रतिमा इत्यर्थ णण्णत्थ अरिहंतेवत्ति न कल्पते इह यो यं नेति प्रतिषेधः सोन्यत्राहभ्यः अर्हतो वर्जयित्वेत्यर्थः स हि किल परिव्राजक वेषधारकोऽतोऽन्ययूथिक देवता वन्दनादिनिषेधे अर्हतामपि वन्दनादि निषेधो माभूदितिकृत्वा णण्णत्थे त्याद्यधीतम् ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003206
Book TitleSamyaktva Shalyoddhara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Punyapalsuri
PublisherParshwabhyudaya Prakashan Ahmedabad
Publication Year1996
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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