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________________ ६७ उपर लिखे सूत्रपाठ के अर्थ में जेठमल ढूंढक लिखता है कि "आनंदश्रावक ने न य तीर्थी के ग्रहण किये चैत्य अर्थात् भ्रष्टाचारी साधु को वोसराया है परंतु अन्य तीर्थी की ग्रहण की जिनप्रतिमा नहीं वोसराई है, क्योंकि अन्य तीर्थी की ग्रहण की प्रतिमा वोसराई होती तो स्वमतेगृहीत जिन प्रतिमा वांदनी रही सो कल्पे के पाठ में कहता" | इस का उत्तर-अरे भाई ! कल्पे के पाठ में तो अरिहंत देव और सा ए को वंदना ना भी नहीं कहा है केवल साध को ही आहार देना कहा है तो वह भी क्या उस को वांदने योग्य नहीं थे ? परंतु जब अन्य तीर्थी को वंदना करने का निषेध किया, तब मुनि को वंदना करनी यह भावार्थ निकले ही हैं। तथा अन्य तीर्थी के देव की प्रतिमा को वंदना का निषेध किया तब जिन प्रतिमा को वंदना करनी ऐसा निश्चय होता है। और अंबड के आलावे अन्य तीर्थी का निषेध, और स्वतीर्थी को वंदना वगैरह करनी ऐसी डबल आलावा कहा है, तथा जिस मुनि ने परतीर्थी को ग्रहण किया अर्थात् अन्य तीर्थी में गया सो मुनि तो परतीर्थी ही कहिये। इस वास्ते अन्य तीर्थी को वंदना न करूं इसमें सो आ गया। फिर कहने की कोई जरूरत न थी, और चैत्य शब्द का अर्थ साधु करते हो सो निःकेवल खोटा है । क्योंकि श्रीभगवतीसूत्र में असुर कुमार देवता सौधर्म देवलोक में जाते हैं, तब एक अरिहंत, दूसरा चैत्य अर्थात् जिन प्रतिमा, और तीसरा अनगार अर्थात् साधु, इन तीनों का शरण करते है, ऐसे कहा है, यत - नन्नत्थ अरिहंते वा अरिहंतचेइयाणि वा भावीअप्पणो अणगारस्स वाणिस्साए उढ्ढं उप्पयंति जाव सोहम्मो कप्पो । इस पाठमें (१) अरिहंत, (२) चैत्य, और (३) अनगार, यह तीन कहे हैं, यदि चैत्य शब्द का अर्थ साधु हो तो अनगार पृथक् क्यों कहा, जरा ध्यान दे के विचार देखो ! इस वास्ते चैत्य शब्द का अर्थ मुनि करते हो सो खोटा है, श्रीउपासक दशांग के पाठ का सच्चा अर्थ पूर्वाचार्य जो कि महाधुरंधर केवली नहीं परंतु केवली सरिखे थे, वे कर गये हैं। सो प्रथम हमने लिख दिया है; परंतु जेठमल भाग्यहीन था, जिस से सच्चा अर्थ उसको नहीं भान हुआ। और चैत्य साधु का नाम कहते हो सो तो जैनेंद्रव्याकरण, हैमीकोष, अन्य व्याकरण, कोष, तथा सिद्धांत वगैरह किसी भी ग्रंथ में चैत्य शब्द का अर्थ साधु नहीं है । ऐसा धातु भी कोई नहीं है कि जिससे चैत्य शब्द साधु वाचक हो। तो जेठमल ने यह अर्थ किस आधार से किया ? परंतु इससे क्या ! जैसे कोई कुंभार, अथवा हजाम (नाई) जवाहिर के परीक्षक जौहरी को झूठा कहे,तो क्या बुद्धिमान पुरुष उस कुंभार, वा हजाम को जौहरी मान लेंगे ? कदापि नहीं, वैसे ही ज्ञानवान् पूर्वाचार्यों के किये गये अर्थ को असत्य ठहरा के अक्षरज्ञान से भी भ्रष्ट जेठमल के किये अर्थ को सम्यक् दृष्टि पुरुष सत्य नहीं मानेंगे। इस १ पूर्वाचार्यों ने जैनसिद्धातो में चैत्य शब्द का अर्थ ऐसे प्रतिपादन किया है-तथा हिः - अरिहंतचेइयाणंति अशोकाद्यष्टमहाप्रातिहार्यरूपां पूजामहन्तीत्यर्हन्तस्तीर्थकरास्तेषां चैत्यानि प्रतिमालक्षणानि अर्हचैत्यानि इयमत्र भावना चित्तमन्तःकरणं तस्य भावे कर्मणि वा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003206
Book TitleSamyaktva Shalyoddhara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Punyapalsuri
PublisherParshwabhyudaya Prakashan Ahmedabad
Publication Year1996
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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