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________________ ३५ तथा शास्त्र में मुंहपत्ती और रजोहरण त्रस जीव की यत्ना वास्ते कहे हैं, और तुम तो मुँहपत्ती वायुकाय की रक्षा वास्ते कहते हो तो क्या रजोहरण वायुकाय की हिंसा वास्ते रखते हो ? क्योंकि रजोहरण तो प्रायः सारा दिन वारंवार फिराना ही पड़ता है । प्रश्न के अंत में जेठा लिखता है कि "पुस्तक की आशातना टालने वास्ते मुंहपती कहते है, वे झुठ कहते हैं "जेठे का यह पूर्वोक्त लिखना असत्य है, क्योंकि खुले मुंह बोलने से पुस्तकों पर थूक पड़ने से आशातना होती है, यह प्रत्यक्ष सिद्ध है । तथा जेठेने लिखा है कि "पुस्तक तो महावीर स्वामी के निर्वाण बाद लिखी गयी हैं तो पहिले तो कुछ पुस्तक की आशातना होती नहीं थी" यह लिखना भी जेठेका अज्ञानयुक्त है, क्योंकि अठारह लिपि तो श्रीऋषभदेव के समय से प्रगट हुई है तथा तुम्हारे किस शास्त्र में लिखा है कि महावीर के निर्वाण बाद अमुक संवत में पुस्तक लिखे गए हैं। और इससे पहिले कोई भी पुस्तक लिखी हुई नहीं थे ? और यदि इससे पहिले बिलकुल लिखत ही नहीं थी, तो श्रीठाणांगसूत्र में पांच प्रकार की पुस्तक लेने की साधु को मना की है, सो क्या बात है ? जरा आंखें मीट के सोच करो। ॥ इति ॥ ६. यात्रातीर्थ कहे हैं तद्विषयिक : छठे प्रश्नोत्तर में जेठे ने भगवतीसूत्र में से साधु की यात्रा जो लिखी है, सो ठीक है, क्योंकि साधु जब शत्रुजय गिरनार आदि तीर्थों की यात्रा करता है, तब तीर्थभूमि के देखने से तप, नियम, संयम, स्वाध्याय, ध्यानादि अधिक वृद्धिमान् होते हैं । श्रीज्ञातासूत्र तथा अंतगडदशांगसूत्र में कहा है कि-जाव सित्तुंजे सिद्धा-इस पाठ से सिद्ध है कि तीर्थभूमि का शुभ धर्म का निमित्त है। नहीं तो क्या अन्य जगह मुनियों को अनशन करने के वास्ते नहीं मिलती थी ? __ तथा श्रीआचारांगसूत्र की नियुक्ति में अनेक तीर्थों की यात्रा करना लिखा है और नियुक्ति माननी श्रीसमवायांगसूत्र तथा श्रीनंदिसूत्र के मूलपाठ में कही है, परंतु ढूंढिये नियुक्ति मानते नहीं है, इस वास्ते यह महा मिथ्यादृष्टि अनंत संसारी हैं। पार्वती ढूंढकनी भी अपनी बनाई ज्ञानदीपिका में लिखती है कि पाठक लोगों को विदित हो कि इस परमोपकारी ग्रंथ को मुख के आगे वस्त्र रख कर अर्थात् मुख ढांक कर पढना चाहिये क्योंकि खुले मुख से बोलने में सूक्ष्म जीवों की हिंसा हो जाती है, और शास्त्रा पर (पुस्तक पर) थूक पड जाती है। श्रीआचारांगसूत्र की नियुक्ति का पाठ यह है यतः दसण णाण चरिते तव वेरग्गेय होइ पसत्था । जाय जहा ताय तहा लक्खण वोच्छं सलक्खणओ ।।४६।। तित्थगराण भगवओ पवयण पावयणि अइसढ्ढीणं अहिगमण णमण दरिसण कित्तणओ पूयणा थुणणा ।।४७।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003206
Book TitleSamyaktva Shalyoddhara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Punyapalsuri
PublisherParshwabhyudaya Prakashan Ahmedabad
Publication Year1996
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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