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________________ २१ १. श्रीजंबूद्वीप पन्नत्ति सूत्र में ऋषभ कूट का विस्तार मूल में आठ योजन, मध्यमें छे योजन, और ऊपर चार योजन कहा है । फिर उसी में ही कहा है कि ऋषभ कूट का विस्तार मूल में बारह योजन, मध्य में आठ योजन, और ऊपर चार योजन है । बताइये एक ही सूत्र में दो बातें क्यों ? २. श्रीसमवायांगसूत्र में श्रीमल्लिनाथ प्रभु के (५७००) मन पर्यवज्ञानी कहे हैं, ___और श्रीज्ञातासूत्र में (८००) कहे हैं, यह क्या ? ३. श्रीसमवायांगसूत्र में श्रीमल्लीनाथजी के (५९००) अवधि ज्ञानी कहे हैं और | श्रीज्ञातासूत्र में (२०००) कहे हैं सो क्या ? ४. श्रीज्ञातासूत्र में श्रीमल्लिनाथजी की दीक्षा के पीछे ६ मित्रों की दीक्षा लिखी है, और श्रीठाणांगसूत्र में श्रीमल्लिनाथजी के साथ ही लिखी है सो क्या ? .. ५. श्रीउत्तराध्ययन सूत्र के ३३ में अध्ययनमें वेदनीय कर्मकी जघन्य स्थिति अंतर्मुहूर्त की कही है, और श्रीपन्नवणासूत्र के ३३ में पद में बारह मुहूर्त की कही हैं, सो क्या ? इस तरह अनेक फरक हैं, जिनमें से अनुमान ९०. श्रीमद्यशोविजयजी कृत वीरस्तुतिरूप हुंडी के स्तवन के बालावबोध में पंडित श्रीपदमविजयजी ने दिखलाए हैं, परंतु यह फरक तो अल्प बुद्धि वाले जीवों के वास्ते है । क्योंकि कोई पाठांतर, कोई अपेक्षा, कोई उत्सर्ग, कोई अपवाद, कोई नयवाद, कोई विधिवाद, कोई चरितानुवाद, और कोई वाचनाभेद है, सो गीतार्थ ही जानते हैं, जिनमें से बहुत से फरक तो नियुक्ति, टीका प्रमुख से मिट जाते हैं । क्योंकि नियुक्ति के कर्ता चतुर्दश पूर्वधर समुद्र सरिखी बुद्धि के धनी थे, ढूंढकों जैसे मूढमति नहीं थे। ऐसे पूर्वोक्त प्रकार के अनाचारी, भ्रष्ट, दुराचारी, कुलिंगियों को, जैनमत के, चतुर्विध संघ के तथा देव गुरु शास्त्र के निंदकों को, तथा दैत्य सरिखे रूप धारने वाले स्वच्छंदमतियों को, साधु मानने और इनके धर्म की उदय उदय पूजा कहनी तथा लिखनी महामिथ्या दृष्टियों का काम है । और जो सूयगडांगसूत्र की गाथा लिख के जेठे ने अपनी परंपराय बांधी है सो असत्य है, क्योंकि इन गाथाओं में सिद्धांतकार ने ऐसा नहीं लिखा है कि पंचम काल में मुहबंधे ढूंढक मेरी पंरपरा में होंगे। इस वास्ते इन गाथाओं के लिखने से ढूंढक पंथ सच्चा नहीं सिद्ध होता है। परंतु ढूंढक पंथ वेश्यापुत्र तुल्य है यह तो इस ग्रंथमें प्रथम ही साबित कर चुके है। ॥ इति प्रथम प्रश्नोत्तर खंडनम् ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003206
Book TitleSamyaktva Shalyoddhara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Punyapalsuri
PublisherParshwabhyudaya Prakashan Ahmedabad
Publication Year1996
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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