SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 15
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ नित्यानंदपदप्रयाणसरणी श्रेयोऽवनिसारिणी । संसारार्णवतारणैकतरणी विश्वर्द्धिविस्तारिणी ॥ पुण्याङ्कभर प्ररोहधरणी व्यामोहसंहारिणी । प्रीत्यैस्ताजिन तेऽखिलार्त्तिहरणी मूर्त्तिर्मनोहारिणी ।। १ ।। अनंत ज्ञानदर्शनमय श्रीसिद्ध परमात्मा को तथा चार निक्षेपायुक्त श्रीअरिहंत भगवंत को और शाश्वती अशाश्वती असंख्य जिनप्रतिमा को त्रिकरण शुद्धि से नमस्कार कर के इस ग्रंथ के प्रारंभ में मालूम किया जाता है कि प्रथम प्रश्नोत्तर में लिखे अनुसार ढूंढकमत अढाईसौ वर्ष से निकला है जिस में अद्यापि पर्यंत कोई भी सम्यक्ज्ञानवान् साधु अथवा श्रावक हुआ हो ऐसे मालूम नहीं होता है, कहां से होवे ? जैनशास्त्र से विरुद्ध मत में सम्यक्ज्ञान होने का संभव ही नहीं है, उत्पत्ति समय में इस मत की कदापि कितनेक वर्ष तक अच्छी स्थिति चली हो तो आश्चर्य नहीं परंतु जैसे इंद्रजाल की वस्तु बहुत काल तक नहीं रहती है वैसे इस कल्पित मत का भी बहुत वर्ष से दिनप्रतिदिन क्षय होता देखने में आता है, क्योंकि अनजानपन से इस मत में साधु अथवा श्रावक बने हुए बहुत प्राणी जब | जैन शास्त्र के सच्चे रहस्य के ज्ञाता होते हैं, तो जैसे सर्प कुंज को त्याग के चला जाता है | ऐसे इस मत को त्याग देते हैं और जैनमत जो तपागच्छ में शुद्ध रीति देशकालानुसार प्रवर्त्तता है उस को अंगीकार करते हैं, इसी प्रकार इस ग्रंथ के कर्ता महामुनिराज १००८ | श्रीमद्विजयानंदसूरि ( आत्मारामजी ) महाराज भी जैनसिद्धांत को पढकर ढूंढकमत को | असत्य जानकर कितने ही साधुओं के साथ ढूंढकपंथ को त्याग कर पूर्वोक्त शुद्ध जैनमत के अनुयायी बने, जिन के सदुपदेश से पंजाब, मारवाड, गुजरात आदि देशों में बहुत ढूंढियों ने ढूंढकमत को छोडकर तपागच्छ शुद्ध जैनमत अंगीकार किया है। प्रस्तावना [ पूर्वावृत्ति में से साभार ] तपागच्छ यह बनावटी नाम नहीं है परंतु गुणनिष्पन्न है क्योंकि श्रीसुधर्मास्वामी से परंपरागत जैनमत के जो ६ नाम पडे हैं उन में से यह ६ (छठा) नाम है जिन ६ नामों की सविस्तर हकीकत तपागच्छ की पट्टावलि में है ? जिस से मालूम होता है कि तपागच्छ नाम मूल शुद्ध परंपरागत है और ढूंढकमत बिनागुरु के निकला हुआ परंपरा से विरुद्ध है ।। १ इस ढूंढकमत में जेठमल नामक एक रिख साधु हुआ है उसने महा कुमति के प्रभाव से तथा गाढ मिथ्यात्व के उदय से स्वपर को अर्थात् रचनेवाले और उस पर श्रद्धा करनेवाले दोनों को भवसमुद्र में डुबानेवाला समकितसार (शल्य) नामक ग्रंथ १८६५ में बनाया था परंतु वह ग्रंथ और ग्रंथ का कर्ता दोनों ही अप्रामाणिक होने से देखो जैन तत्त्वादर्शका बारहवां परिच्छेद । १ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003206
Book TitleSamyaktva Shalyoddhara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Punyapalsuri
PublisherParshwabhyudaya Prakashan Ahmedabad
Publication Year1996
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy