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________________ सचित्त ही हैं तथा जेठमल लिखता है कि "देवकृत वैक्रिय फूल होवे तो वे सचित नहीं ।" सो भी झूठ है क्योंकि देवकृत वैक्रिय वस्तु देवता के आत्मप्रदेश संयुक्त होती है। इस वास्ते सचित्त ही है, अचित्त नहीं, तथा चौतीस अतिशय में पुष्पवृष्टि का अतिशय है । सो जेठमल देवकृत नहीं प्रभु के पुण्य के प्रभाव से है| "ऐसे कहता है सो झूठ है । क्योंकि (३४) अतिशय में (४) जन्म से (११) घातिकर्म के क्षय से और (१९) देवकृत हैं उस में पुष्पवृष्टि का अतिशय देवकृत में कहा है । इस मुताबिक अतिशय की बात श्रीसमवायांगसूत्र में प्रसिद्ध है। कितनेक ढूंढिये इस जगह जलयथलय, इन दोनों शब्दों का अर्थ घजलथल के जैसे फूल कहते हैं । परंतु इन दोनों शब्दों का अर्थ सर्वशास्त्रों के तथा व्याकरण की व्युत्पत्ति के अनुसार जल और थल में पैदा हए हए ऐसा ही होता है। जैसे पंकयं-पंक नाम कीचड उसमें जो उत्पन्न हुआ हो सो पंकय (पंकज) अर्थात् कमल और तनयं तन नाम शरीर उससे उत्पन्न हुआ हो सो तनय अर्थात् पुत्र ऐसे अर्थ होते हैं। ऐसे (तनुज, आत्मज, अंडय, पोयय, जराउय इत्यादि) बहुत शब्द भाषा में (और शास्त्रों में) आते हैं तथा घज शब्द का अर्थ भी उत्पन्न होना यही है। तो भी अज्ञानी दूढिये अपना कुमत स्थापन करने वास्ते मन घडंत अर्थ करते हैं परंतु वे सर्व मिथ्या हैं । ६. जेठमल कहता है कि "भगवंत के समवसरण में यदि सचित्त फूल हो तो सेठ, शाहुकार, राजा, सेनापित आदि को पांच अभिगम कहे हैं । उन में सचित्त बाहिर रखना और अचित्त अंदर ले जाना कहा है सो कैसे मिलेगा ?" उस का उत्तर-सचित्त वस्तु बाहिर रखनी कहा है। सो अपने उपभोग की समझनी, परंतु पूजा की सामग्री नहीं समझनी, जो सचित्त बाहिर छोड़ जाना और अचित्त अंदर ले जाना । ऐसे एकांत हो तो राजा के छत्र, चामर, खडग, उपानह और मुगट वगैरह अचित्त हैं। परंतु अंदर ले जाने में क्यों नहीं आते हैं ? तथा अपने उपभोग की अर्थात् खानेपीने की कोई भी वस्तु अचित्त हो तो वह क्या प्रभु के समवसरण में ले जाने में आवेगी? नहीं, इस वास्ते यह समझना कि अपने उपभोग की अर्थात् खानेपीने आदि की वस्तु सचित्त हो अथवा अचित्त हो, बाहिर रखनी चाहिये, और पूजा की सामग्री अचित्त अथवा सचित्त हो सो अंदर ही ले जाने की हैं। ७. जेठमल लिखता है कि "जो फूल सचित्त हो तो साधु को उसका संघट्टा और उस से जीव विराधना हो सो कैसे बने" उसका उत्तर-जैसे एक योजन मात्र समवसरण की भूमि में अपरिमित सुरासुरादिकों का जो संमर्द उसके हुए हुए भी परस्पर किसी को कोई बाधा नहीं होती है। वैसे ही जानु प्रमाण विखरे हुए मंदार, मचकुंद, कमल, बकुल, मालती, मोगरा वगैरह कुसुमसमूह उनके ऊपर संचार करने वाले, रहने वाले बैठने वाले, उठने वाले, ऐसे मुनिसमूह और जनसमूह के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003206
Book TitleSamyaktva Shalyoddhara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Punyapalsuri
PublisherParshwabhyudaya Prakashan Ahmedabad
Publication Year1996
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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