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________________ सत्य प्ररूपणा की ओर इन्हीं के सम्यग् अनुष्ठान से यह संसारी आत्मा विकासोन्मुख होता हुआ किसी एक दिन अपने वास्तविक स्वरूप को प्राप्त करलेता है । तत्त्वगवेषणा और आत्म चिन्तन के लिये संकीर्ण मनोवृत्ति का परित्याग और उदार अथच अनाग्रही मनोवृत्ति में अनुराग करना पड़ता है। शास्त्रों के रहस्य पूर्ण गंभीर आशय को समझने के लिये विवेकपूर्ण मनोयोग की आवश्यकता है, शास्त्र के केवल शुद्धाशुद्ध मुखपाठ और उस के विना सिरपैर के बतालाये हुए उलटे सीधे अर्थ को तोते की तरह रट लेने मात्र से न तो वस्तु तत्त्व का यथार्थ भान होता है और नाही उससे अत्मगुणों के विकास में किसी तरह की सहायता मिलती है, और विपरीत इसके जिज्ञासु की मनोवृत्ति में विकास प्रतिद्वन्द्वी संकीर्णता उत्पन्न होजाती है । फलस्वरूप साधक के मनमें ऐसे संस्कार घर कर जाते हैं कि फिर उनका वहां से निकलना या निकालना कठिन ही नहीं अत्यन्त कठिन हो जाता है। दूसरे शब्दों में कहें तो जैसे मलीन वस्त्र पर रंग नहीं चढ़ता उसी तरह अमुक प्रकार के संस्कारों से वासित हुए साधक के मलयुक्त अन्तःकरण पर सत्य की छाप नहीं लगती, यदि लगती है तो बहुत कम जो कि उसकी मलिनता में ही तिरोहित हो जाती है। ___ हम लोग धर्म मार्ग के जिस वायु मंडल में विचरते हैं, वह इतना शुद्ध नहीं जितना कि हमने उसे समझ रक्खा है, उसमें मलिनता की अपेक्षा स्वच्छता कम और प्रकाश की अपेक्षा अन्धकार अधिक है । इसी प्रकार हमारी श्रद्धा का निर्माण जिस मनोवृत्ति के आश्रित है वह भी अत्यन्त संकुचित, दुराग्रही अथच भ्रान्त है । इसलिये उसके आधार पर सुनिश्चित किये गये धार्मिक सिद्धान्त भी अधूरे अथच भ्रान्त हैं। दुराग्रही मनोवृत्ति ने श्रद्धा की परिधि को इतना सीमित और कुंठित कर दिया है कि वह निर्जीवसी बनकर रह गयी है । उसमें गति होते हुए भी प्रगति दिखाई नहीं देती, फलस्वरूप सतत क्रियाशील होने पर भी हम कोल्हू के बैल की तहर जब भी देखते हैं अपने को उसी स्थानपर खड़ा पाते हैं । हमारी मनोवृत्ति के पीछे ज्ञान का जो प्रकाश है वह बहुत मन्द है । इसलिये अाग्रह की दलदल में फंसी हुई मनोवृत्ति को येन केन उपायेन वहां से निकालकर उदारता की विशाल भूमि पर प्रतिष्ठित करने का यत्न करना चाहिये । तथ्यगवेषक और सत्य के पक्षपाती व्यक्ति का मानस सदा उदार और अनाग्रही होता है और होना चाहिये, तभी वह अपने उद्देश्य में सफलता प्राप्त कर सकता है । सारांश कि यदि तुम लोगों ने मेरे से आगमों का अभ्यास करना है तो सब से प्रथम अपनी मनोवृत्ति को शुद्ध करने का यत्न करो, तुम लोगों ने शास्त्रों के विकृत स्वाध्याय से देव गुरु और धर्म के स्वरूप में जो धारणा बना रक्खी है उसे या तो अपने हृदय प्रदेश से निकाल दो और या उसे सर्वथा भूल जाओ ! उसके अनन्तर आगमों के समुचित अभ्यास से तुम्हें जो सत्य प्रतीत हो उसी को सर्वेसर्वा अपनाने का भरसक प्रयत्न करो ! बस, शास्त्राभ्यास का प्रारम्भ करने से पूर्व यही सारगर्भित सूचना मैंने तुमसे करनी थी सो करदी। मुनि श्री आत्माराम जी के उक्त वचनों से दोनों व्यक्ति ( श्री विश्नचन्द और चम्पालाल जी ) बड़े प्रभावित हुए और नतमस्तक होकर हकने लगे-महाराज ! हम तो इस समय “किं कर्तव्य विमूढ़" से बनगये Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003203
Book TitleNavyuga Nirmata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayvallabhsuri
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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