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________________ २०४ नवयुग निर्माता - कराऊंगा। परन्तु इतने में राजासाहब को कोई अन्य आवश्यक काम आपड़ा इससे यह सारा ही विचार वहीं का वहीं रहगया। इधर जब चतुर्मास पूर्ण होने पर आया और राजा साहब की ओर से कोई सूचना न मिली तो एक दिन महाराज श्री श्रात्माराम-आनन्दविजय जी ने उस श्रावक को बुलाकर कहा कि भाई ! तुम उस दिन राजा साहब का जो सन्देश लाये थे उसको अभी तक व्यावहारिक रूप प्राप्त नहीं हुआ, तुम जाकर राजा साहब से कहो कि आपने उस दिन मिलने सम्बन्धी जो सन्देश भेजा था उसके विषय में आपका अब क्या विचार है ? हमारा चातुर्मास पूरा होने को आया है, शास्त्रीय साधु मर्यादा के अनुसार चातुर्मास के बाद हमारा यहां पर रहना नहीं हो सकता, हमें दूसरे ही दिन यहां से विहार कर जाना होगा, इसलिये आपका जो विचार हो उसे अवश्य सूचित करें । श्रावक ने जाकर राजा साहब को, महाराज श्री का जब उक्त सन्देश कह सुनाया तो सुनकर वे बड़े प्रसन्न हुए और बोले कि इस विषय में मैं महाराज श्री का बहुत कृतज्ञ हूँ जो कि उन्होंने मेरे को सूचना देकर सजग किया । मुझे यह मालूम नहीं था कि आप चातुर्मास के बाद तुरत ही विहार कर जावेंगे। मैं तो यही समझता था कि जैसे और साधु चतुर्मास के बाद भी जितने दिन चाहें ठहरे रहते हैं वैसे आपभी ठहरेंगे। अच्छा अब तो दिन बहुत थोड़े रहगये हैं इसलिये शीघ्र से शीघ्र इसका प्रबन्ध होना चाहिये, इसलिये एकादशी का दिन यदि महाराज श्री को अनुकूल पड़े तो उसी दिन का निश्चय करलिया जावे । और हमारे महाराज श्री आत्मानंदजी को तो इस दिन के लिये कोई अड़चन नहीं है। तब श्रावक ने महाराज श्री आनंदविजय जी को जब यह सामचार सुनाया तो उन्होंने भी एकादशी के दिन को सहर्ष स्वीकार कर लिया। परिणाम स्वरूप दोनों ही महापुरुष एकादशी के दिन राजा साहब के स्थान पर निश्चित किये हुए समय पर पधारे और राजा साहब ने हर्षपूरित हृदय से दोनों का समुचित स्वागत किया तथा दोनों ही महानुभाव एक दूसरे से सप्रेम मिले और बराबर के दोनों आसनों पर विराजमान हो गये। अनुरूप आसनों पर विराजे हुए दोनों महापुरुषों को निर्निमेष दृष्टि से देखते हुए राजा साहब बड़े विस्मय को प्राप्त हुए और बड़े सोच विचार में पड़गये। मन ही मन कहने लगे-मेरे गुरु ने दो रूप बना लिये हैं या जैन गुरु दो स्वरूपों में व्यक्त हो रहा है। दोनों का स्वरूप आकृति एक जैसी दिखाई देती है, केवल वेष में थोडासा अन्तर है, एक काषाय वस्त्रों से अलंकृत है दूसरा पीताम्बर-पीले वस्त्र में सुसज्जित हो रहा है। इस वेष विभिन्नता से ही दो प्रतीत होते हैं । अस्तु, पूछ देखेंगा । समान कक्षा में बैठे हुए दोनों महापुरुषों को प्रणाम करके राजा साहब भी उनके सामने बैठ गये। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003203
Book TitleNavyuga Nirmata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayvallabhsuri
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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