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________________ ( ३० ) यह कहना अनुचित न होगा कि वैदिक वाङमय का परिशीलन करने पर विदित होता है कि पुरातन भारत में हिंसा और अहिंसा की दो विचार धाराएँ शुक्ल पक्ष एवं कृष्ण पक्ष के समान विद्यमान थीं । उल्लेखनीय है कि जहाँ बाल्मीकि के आश्रम में वसिष्ठ के लिये गौ-माँस खिलाने का वर्णन है, राजर्षि जनक को माँस रहित मधुपर्क के लिये कहा गया है। वेदों में ऐसे अनेकों मन्त्र पाये जाते हैं जिनमें हिंसा को महापाप एवं घोर नकं में ले जाने वाला बताया गया है। जिन वेदों में इस प्रकार के असंदिग्ध शब्दों में हिंसा को महापाप बताया गया हो उन्हीं वेदों में हिंसा का समर्थन कैसे किया जा सकता है ? हमें तो तथ्य यह प्रतीत होता है कि वेद किसी एक ही ऋणि द्वारा एक ही समय में रचे हुए नहीं है, वरन् इनकी विभिन्न ऋचाएँ विभिन्न समयों में, विभिन्न ऋषियों द्वारा रची गयी है । जिस ऋषि की जैसी मनोवृत्ति हुई उन्होंने वैसी ही ऋचाएँ बना दी। जो ऋषि दयालु व संयमी थे उन्होंने हिंसा करना पाप बताया । जो ऋषि माँस लोलुपी व इंद्रियों के दास थे उन्होंने पशुओं की बलि देने के समर्थन में ऋचाएँ बनाई । बहुत से स्थानों पर ऐसा भी 'हुआ है कि एक ही शब्द के दो अर्थ होने के कारण व्यक्तियों ने अपनीअपनी मनोवृत्ति के अनुकूल इन द्वयर्थंक शब्दों के अर्थ लगा लिये। उदाहरण के लिये 'अज' शब्द का अर्थ है- पुराना धानं, जो फिर से न उग सके । इसका दूसरा अर्थ है- बकरा | जो विद्वान संयमी तथा दयालु थे उन्होंने इसका अर्थ पुराना धान माना, जो माँस-लोलुपी थे उन्होंने बकरा माना । अनेक प्रसंग ऐसे भी हैं कि एक ही ऋषि एक समय में माँस खाने का समर्थन करता है तो वही ऋषि दूसरी जगह माँस छोड़ने का सुफल बताता है । जैसाकि हम पहले भी कह आये हैं कि याज्ञवल्क्य कहते हैं- जो गाय और बैल मांसल होता है उसे मैं खाता। | जहाँ शतपथ ब्राह्मण में याज्ञवल्क्य इस प्रकार कह रहे हैं वहीं याज्ञवल्क्य संहिता में वे इस प्रकार कह रहे हैं - "जो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003202
Book TitleVibhinna Dharm Shastro me Ahimsa ka Swarup
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNina Jain
PublisherKashiram Saraf Shivpuri
Publication Year1995
Total Pages184
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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