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________________ ( २२ ) दक्षिणा है तथा ज्ञान, दर्शन और चरित्र यह रत्नत्रयी रूप त्रिवेदी है । यह यज्ञ वेद का कहा हुआ है। ऐसा यज्ञ जो योगाभ्यास संयुक्त करे तो करने वाला मुक्त रूप हो जाता है और जो राक्षस तुल्य होकर छागादि मारकर यज्ञ करता है वह मरकर घोर नरक में चिरकाल तक महादुख को भोगता है । महाभारत के शांति पर्व में हिंसा की निन्दा और अहिंसा की प्रशंसा की गई है । युधिष्ठिर जग भीष्म पितामह से पूछते हैं कि जिस यज्ञ का प्रयोजन केवल धर्म हो ऐसा कौनसा यज्ञ है ? प्रत्युत्तर में भीष्म उंछवृत्ति का वृत्तान्त बताते हुए कहते हैं कि उत्तर राष्ट्र विदर्भ में कोई ब्राह्मण ऋषि निवास करता था । वह इधर-उधर से दानों को बीनकर अपना निर्वाह करता था । किसी समय इस ब्राह्मण ने यज्ञ करने का निश्चय किया । अतः वन में जाकर भोजन के लिये साँव (एक प्रकार का धान्य) दाल के लिये सूर्य पर्णी (जंगली उड़द) और साग के लिये सुवर्चला ब्राह्मोलता ) प्राप्त की । यद्यपि ये सब कटु एवं रस रहित थे परन्तु ब्राह्मण की तपस्या से ये सब सुस्वादु हो गई थी । इन्हीं चीजों से उसने किसी प्राणी की हिंसा न करते हुए स्वर्ग प्राप्ति कराने वाले यज्ञ का अनुष्ठान किया । इस ब्राह्मण के पुष्करधारिणी नामक स्त्री थी । यद्यपि यह स्त्री सभी बातों में पति के विचारानुकूल होते हुए भी यज्ञ के विषय में पति से भिन्न विचार रखतो थी लेकिन शाप के डर से पति स्वभाव का अनुसरण करती थी । उसने किसी समय पति की आज्ञा से यज्ञ का फल नहीं चाहते हुए यज्ञ करना आरम्भ किया । उस वनमें सत्य (उंछवृत्ति) का सहवासी एक मृग था । उसने मनुष्य की बोली में सत्य से कहा "ब्राह्मण तुमने यज्ञ के नाम पर यह दुष्कर्म किया है क्योंकि यदि किया हुआ यज्ञ मन्त्र और यज्ञ से हीन हो तो वह यजमान के लिये दुष्कर्म ही है तू मुझे अग्नि में होम दे और स्वर्ग में जा । उसके बाद साक्षात् सावित्री देवी ने पधार कर उस मृग की आहुति देने की सलाह दी । लेकिन ब्राह्मण द्वारा मृग के वध का इंकार करने से सावित्री Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003202
Book TitleVibhinna Dharm Shastro me Ahimsa ka Swarup
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNina Jain
PublisherKashiram Saraf Shivpuri
Publication Year1995
Total Pages184
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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