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________________ परस्परा संस्कृतियों ने अपने धार्मिक स्थानों में इन चीजों के ले जाने का निषेध किया है। जब पाषाण निर्मित मन्दिरों में मांस ले जाने का निषेध है तो मन मन्दिर का महत्व तो जगजाहिर है। विश्व के समस्त धर्म दर्शनों ने मन मन्दिर को आत्मदेव का देवालय के रूप में स्वीकार किया है । इस मन-मन्दिर में मांस जैसी घिनौनी चीजें भरकर उसे अपवित्र बनाना कहाँ की बुद्धिमत्ता है ? ....मैंने इस पुस्तक को रचना किसी पक्षपात के वशीभूत होकर नहीं की और न ही यह किसी सम्प्रदाय विशेष के लिये है। लिखने का मेरा उद्देश्य • यही है कि हमारे धर्म-शास्त्र क्या-क्या फर्माते हैं ? और हम उन अर्थों का आज कितना अनर्थ कर रहे हैं। हम अपने महापुरुषों की जयन्तियाँ तो बड़े धूम-धाम से मनाते हैं लेकिन अपने अन्तर्मन को टटोलकर देखें कि हम उनके उपदेशों का कितना अनुसरण कर रहे हैं ? क्षमा चाहूगी, छोटे मुह बड़ी बात कर रही हूँ क्योंकि मैंने जो कुछ लिखा है, स्वयं पूर्णरूपेण उसके अनुकूल नहीं हूँ। फिर भी स्वयं के साथ-साथ पाठकों से भी आशा करूंगी कि पुस्तक का मनन कर हम इसके अनुरूप चलने का प्रयत्न करें। इतिहासवेत्ता पू. आचार्य श्री. विजयेन्द्र सूरिजी महाराज का जन्म स्थान पंजाब प्रदेश के सियालकोट जिले के अन्तर्गत संखत्रा नामक कस्बे में (जो वर्तमान में पाकिस्तान में चला गया है) हुआ। उन्हीं के नाम पर यह शोध संस्थान कायम किया है। इस संस्था को पू. आचार्य शांतिदूत श्रीमद् विजय नित्यानन्द सूरीश्वरजी महाराज साहिबा का आशीर्वाद प्राप्त है, जिसका सम्बन्ध संखो से अति निकट का है क्योंकि उनकी माताजो पू. श्री अमित गुणा श्री जी का जन्म स्थान भी संखत्रा ही है। पू. आचार्य श्री जी का प्रधान शिष्य पू मुनि श्री चिदानन्द विजयजी (मेरे सांसारिक भाई) का जन्म स्थान मध्यप्रदेश का शिवपुरी नगर है, जहां यह शोध संस्थान कायम है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003202
Book TitleVibhinna Dharm Shastro me Ahimsa ka Swarup
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNina Jain
PublisherKashiram Saraf Shivpuri
Publication Year1995
Total Pages184
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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