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________________ ( ८६ ) उसकी नन्हीं सी जिन्दगी है जिसमें वह सातवें नकं की तैयारी कर लेता है । यह जैनागमों की विचारधारा है । यहाँ द्वव्य हिंसा कुछ भी नहीं, भाव हिंसा ही 'महतो महीयान' है । २. द्रव्य हिंसा हो, भाव हिंसा न हो :-- दूसरा विकल्प आता है जिसमें द्रव्य हिंसा हो, किन्तु भाव - हिंसा न हो । एक साधक के मन में हिंसा की प्रवृत्ति न हो किन्तु सावधानी के साथ प्रवृत्ति करते हुए भी हिंसा हो जाये तो आगमों का कहना है कि ऐसी स्थिति में सिर्फ पुण्य प्रकृति का ही बंध होता है, पाप प्रकृति का नहीं क्योंकि हिंसा तो कषाय भाव में है । किसी के द्वारा किसी जीव का मर जाना अपने आप में हिंसा नहीं है किन्तु क्रोध, मान, माया अथवा लोभ भाव से किसी जीव के प्राणों को नष्ट करना हिंसा है। कहने का तात्पर्य है कि कषाय भाव में न होने पर यदि किसी साधक से हिंसा हो जाती है तो यह केवल द्रव्य-हिंसा है, भाव - हिंसा नहीं । यह राग-द्व ेष की स्थिति से सर्वथा अलग है। प्राणी के प्रति दुर्भाव नहीं अपितु सद्भाव है अतः उनके शरीरादि से होने वाली हिंसा - हिंसा नहीं है क्योंकि हिंसा की नहीं गई पपितु हो गई है अथवा यूं कहें कि जीवों को मारा नहीं गया अपितु मर गये हैं तो मर जाने में पाप बँध नहीं है किन्तु मारने में पाप बँध है । जैसाकि आचार्य भद्रबाहू कहते हैं - !! ईर्या समिति से युक्त कोई साधक चलने के लिये पाँव उठाये और अचानक कोई जीव पाँव के नीचे आकर, दबकर मर जाये तो उस साधक को उसकी मृत्यु के निमित्त से जरा भी बँध नहीं होगा, क्योंकि वह साधक पूर्ण रूप से उपयोग रखने के कारण निष्पाप है ।" १ यही बात आचार्य वट्टकेर ने इस प्रकार कही है - " कमलिनी का पत्ता जल में ही उत्पन्न होता है और जल से ही बढ़ता है, फिर भी वह जल से लिप्त नहीं होता क्योंकि वह स्नेहगुण से युक्त है । इसी प्रकार समिति युक्त १. ओधनियुक्ति, श्लोक ७४८, ४९ Jain Education International 2 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003202
Book TitleVibhinna Dharm Shastro me Ahimsa ka Swarup
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNina Jain
PublisherKashiram Saraf Shivpuri
Publication Year1995
Total Pages184
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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