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________________ ६६ असली सोना कहा- तू जा, और घर में दीपक जलादे, यह अमृतोपम उपदेश छोड़कर आने का मेरा तो जी नहीं करता । दासी अपने भवन में पहुँची तो वह हक्को बक्की रह गई । वहाँ सेंध लगी थी, भीतर में चोर स्वर्ण आभूषणों की गठरियां बांध रहे थे। चोरों का सरदार बाहर खड़ा निगरानी रख रहा था । घबराई हुई दासी उलटे पांवों लौट पड़ी। चोरों का सरदार उसके पीछे-पीछे चल पड़ा कि देखें यह कहां जाकर किसे ख़बर देती है । दासी स्वामिनी के पास पहुँचकर घबराये हुए स्वर में बोली- 'स्वामिनी ! घर में तो चोर घुस गये' । कात्यायनी ने कुछ सुना ही नहीं, वह उपदेश सुनती रही। दासी ने घबराकर कहा - 'मां ! मां ! सुनती नहीं हो, घर में चोर घुस आये हैं ! समस्त स्वर्ण आभूषण लिये जा रहे हैं ।' कात्यायनी ने धीमे से आँख ऊपर उठाई । 'पगली ! वे ले जाते हैं तो ले जाने दे । वे सब स्वर्ण आभूषण नकली हैं । इतने दिन मैं अज्ञान में थी, उन्हें असली मान बैठी थी । जिस दिन उनकी आँख खुलेगी वे भी पछतायेंगे, उसे नकली पायेंगे | मुझे सच्चा स्वर्ण तो आज मिला है ...। इसे कोई चुरा ही नहीं सकता कात्यायनी का उत्तर सुन दासी आँखें फाड़कर उसकी ओर देखती रही, वह समझ नहीं सकी, स्वामिनी आज क्या कह रही है । पीछे खड़े चोरों के सरदार ने यह सब सुना तो Jain Education Internationa For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003199
Book TitlePratidhwani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1971
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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