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________________ ३३ उठ ! चल पड़ ! जो बैठा रहता है, मंजिल उससे दूर चली जाती है जो चलता है, मंजिल उसके चरणों में स्वयं आकर खड़ी हो जाती है । उपनिषद् का एक वाक्य है यदा वै करोति, अथ निस्तिष्ठति छांदोग्य उपनिषद ७|२१|१ मनुष्य जब काम करने लगता है तो निष्ठा स्वयं जग जाती है । जो चलने से पहले ही यह सोचता रहे कि इतना लम्बा रास्ता है, मेरे पास साधन कुछ नहीं, कैसे इसे पार कर सकूंगा, वह कभी दो कदम भी नहीं चल सकता । वह मूर्ख यह नहीं सोच पाता कि जितने साधन हैं, उतनी दूर तो चल, आगे और साधन मिल जायेंगे । भविष्य की थोथी कल्पना लिए क्यों डर रहा है ? अपने प्राप्त साधनों का उपयोग कर और चल पड़ चलते हैं जब करण स्वयं पथ बन जाता है । और सुना है तू ने --राम के सामने कितना बड़ा कार्य ૨૭ Jain Education Internationa For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003199
Book TitlePratidhwani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1971
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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