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________________ ५८ अमिट रेखाएं राजा ने अपने विश्वस्त अनुचर के द्वारा एकान्त में हस्तिपालक को बुलाया और अमर फल के सम्बन्ध में पूछा, हस्तिपालक के तो भय से रोंगटे खड़े हो गए। मृत्यु के भय से उसने सारी बात राजा के सामने स्पष्ट रूप से रख दी। उसे सुनते ही भर्तृहरि की आंखें खुल गई। उनके मुंह से सहसा निकल गया यां चिन्तयामि सततं मयि सा विरक्ता साप्यन्यमिच्छति जनं स जनोन्यसक्तः अस्मत् कृते च परितुष्यति काचिदन्या धिक ता च तंच मदनं च इमां च मां च ? जिस पिंगला को मैं अपनी अनन्या समझता था अरे जिसके पीछे-दीवाना बना हआ था, वह तो अन्य में आसक्त है, वह जिसे अपना समझती थी उसके हृदय में दूसरी का ही निवास था। धिक्कार है मुझे, पटरानी पिंगला को, हस्तिपालक और इस गणिका को। सबसे बढ़कर धिक्कार है मुझे जो विषयों में आसक्त हो रहा हूँ । प्रस्तुत घटना ने राजा भर्तहरि को संसार से विरक्त कर दिया। वे राज्य का परित्याग कर गिरि कंदराओं में पहुंचकर साधना करने लगे। उनकी जीवन गाथा आज भी भारतीय जन मानस में वैराग्य की निर्मल ज्योति जगाती है। Jain Education InternationaFor Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003195
Book TitleAmit Rekhaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1973
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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