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________________ पृथ्वी पर उसका अवतरण करने का श्रेय महर्षि भरद्वाज, काशिराज दिवोदास धन्वन्तरि और महर्षि कश्यप की है। तत्पश्चात् पुनर्वसु आत्रेय, महर्षि अग्निवेष, महर्षि सुश्रुत आदि विभिन्न शिष्य-प्रशिष्यों द्वारा अधीत होकर आयुर्वेद इस समग्र भूमंडल पर प्रसारित हुआ। वर्तमान में चरकसंहिता, काश्यपसंहिता, अष्टांगहृदय आदि आयुर्वेद के मुख्य और आधारभूत ग्रंथ माने जाते हैं । इस प्रकार यह आयुर्वेद की एक संक्षिप्त वैदिक परम्परा है। - बहुत ही कम लोग इस तथ्य से अवगत हैं कि वैदिक साहित्य की भांति जैनधर्म और जैन साहित्य से भी आयुर्वेद का निकटतम सम्बन्ध है। जैनधर्म में आयुर्वेद का क्या महत्त्व है और उसकी उपयोगिता कितनी है ? इसका अनुमान इस तथ्य से सहज ही लगाया जा सकता है कि जैन वाङ्मय में आयुर्वेद का समावेश द्वादशांग के अन्तर्गत किया गया है । यही कारण है कि जैन वाङ्मय में अन्य शास्त्रों या विषयों की भांति आयुर्वेदशास्त्र या वैद्यक विषय को प्रामाणिकता भी प्रतिपादित है । जैनागम में वैद्यक ( आयुर्वेद ) विषय को भी आगम के अंग के रूप में स्वीकार किए जाने के कारण ही अनेक जैनाचार्यो ने आयुर्वेद के ग्रंथों की रचना की। यह एक महत्त्वपूर्ण तथ्य है कि जैनागम में केवल उसी शास्त्र, विषय या आगम की प्रमाणिकता प्रतिपादित है जो सर्वज्ञ द्वारा उपदिष्ट है। सर्वज्ञ कथन के अतिरिक्त अन्य किसी विषय या स्वरुचि विरचित ग्रंथ अथवा विषय को प्रामाणिकता न होने से जेन वाङ्मय में उसका कोई महत्त्व उपयोगिता या स्थान नहीं है, क्यों कि सर्वज्ञपरमेष्ठी के मुख से जो दिव्यश्वनि खिरती (निकलती) है उसे श्रुतज्ञान के धारक गणधर परमेष्ठी ग्रहण करते हैं । गणधर द्वारा गृहीत वह दिव्यध्वनि जो ज्ञानरूप होती है बारह भेदों में विभक्त की गई, जिसे आचारांग आदि के रूप में उन्होंने निरूपित किया, गणधर द्वारा निरूपित व ज्ञानरूप आगम के बारह भेदों को द्वादशांग की संज्ञा दी गई है। इन द्वादशांगों में प्रथम आचारांग है और बारहवाँ दृष्टिवाद नाम का अंश है । उस बारहवें दृष्टिवादांग के पाँच भेद हैं । उन पाँच भेदों में से एक भेद पूर्व या पूर्वगत है । इस 'पूर्व भेद' के भी पुनः चौदह भेद हैं। पूर्व के इन चौदह भेदों में 'प्राणावाय' नाम का एक भेद है। इसी प्राणावाय नामक अंग में अष्टांग आयुर्वेद का कथन किया गया है, जैनाचार्यों के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003193
Book TitleJain Sahitya ke Vividh Ayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1981
Total Pages90
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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