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________________ श्रमण भगवान् महावीर ७३ एक दरिद्र असहाय के प्रति महाश्रमण का यह अगाध मानवीय प्रेम उनके अन्तर की महामानवता का एक छोटा-सा, किंतु उज्ज्वल चित्र है। प्रेम का देवता : श्रमण महावीर के हृदय में गरीबों के लिए जितनी करुणा और कोमलता थी, दृष्ट एवं कर आत्माओं के प्रति भी असीम प्रेम एवं अपार स्नेह था। वे क्रूरता और द्वेष को मानसिक रोग मानते थे और इसका उपचार करते थे सात्विक स्नेह एवं सहज सौजन्य से। जहाँ भी जो भी सबसे कर और दृष्ट व्यक्ति होता-श्रमण महावीर उसके निकट जाकर करता का सात्विक प्रतिकार करते और प्रेम के ब्रह्मास्त्र से उसे जीत लेते । एकबार महावीर ने सुना कि एक यक्ष बड़ा कर और दुष्ट स्वभाव का है, मनुष्यमात्र के प्रति उसके मन में भयंकर घणा है। उसने हजारों मनुष्यों को मार-मार कर हड्डियों के ढेर लगा दिए हैं। वह सदैव हाथ में एक भयंकर शूल रखता है, देखते ही मनुष्य को उस शूल में पिरो लेता है। श्रमण महावीर एक रात उसी शूलपाणि यक्ष के मंदिर में जाकर ध्यानस्थ हो गए। ___ क्रूर यक्ष ने अपने मंदिर में भिक्षु को खड़ा देखा तो उसने भयंकर अट्टहास करके मंदिर की दिवारों को कँपा दिया; किन्तु महाश्रमण की ध्यान-साधना प्रकंपित नहीं हई। अब तो उसने ऋद्ध होकर भीषण उपद्रव करने शुरू किए। यक्ष के अनेकानेक भीषण उपद्रवों से भी जब महाश्रमण की ध्यान-मुद्रा विचलित न हई, तो वह क्रूर यक्ष स्वयं भयभीत हो उठा---'कहीं यह तपस्वी साधक क्रुद्ध होकर मुझे समाप्त न कर डाले !" क्रूरता हारकर जब भय में परिणत हुई तो महाश्रमण ने प्रेम से आश्वस्त किया ! यक्ष को अभयदान देते हुए कहा-"शूलपाणि ! तुमने अपने को नहीं पहचाना ! तुम्हारे मन की घृणा और क्रूरता एक निम्न प्रकार की कायरता की ही परिणति है। देखो न, तुम्हारा पौरुष हारकर भय में बदल जाता है, क्रूरता ग्लानि में बदल जाती है। अभय और शांति चाहते हो तो प्रेम करो ! मनुष्य के प्रति घृणा नहीं, स्नेह के फूल बरसाओ !" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003192
Book TitleShraman Sanskruti Siddhant aur Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalakumar
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1971
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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