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________________ जैन संस्कृति का मूलाधार : त्यागधर्म महापुरुष जब उसे साधु या श्रावकों के व्रत ग्रहण करने का उपदेश देते हैं, तो वह उसे बहत दुष्कर और कष्टसाध्य मानते हुए व्रतों के स्वीकार या ग्रहण के लिए तैयार नहीं होता, क्योंकि अनादिकाल से उसके ऐसे दृढ़ संकल्प जम गए हैं कि उपभोगों में सुख है, त्याग में दुःख है । यही मिथ्यात्व है जो वस्तु के सच्चे या वास्तविक स्वरूप की प्रतीति नहीं करने देता । सम्यग्दर्शन से बहिर्मुखता फिरती है और अंतमुखता प्राप्त होती है। आध्यात्मिक ग्रन्थों में आत्मा के तीन भेद किए हैं-बहिरात्मा. अन्तरात्मा और परमात्मा । शुद्ध स्वरूप पूर्णरूप से प्रकट हो जाना ही परमात्मपद है। सम्यग्दृष्टि ही अन्तरात्मा है, और मिथ्यादृष्टि ही बहिरात्मा है। शरीर आदि पौदगलिक पदार्थों को अपना मानना, उनमें सुख मानना, भोगोपभोगों में आसक्त रहना ही बहिरात्मा के लक्षण हैं । सम्यग्दृष्टि यद्यपि कर्मोदय के कारण पर-पदार्थों का त्याग नहीं कर सकता, पर उनमें मूच्र्छा या आसक्तिभाव कम करता है या छोड़ता है। उसके आगे जब वह देश विरति बनता है तो सीमित त्याग-भावना को पनपाता है और सर्वविरति बनने पर त्याग मार्ग में पूर्ण रूप से अग्रसर हो जाता है। जब पर-पदार्थ अपने हैं ही नहीं, ऐसी दृढ़ प्रतीति हो जाती है, तब त्याग में कठिनता नहीं लगती, भोगों में आकर्षण नहीं रहता। विरक्ति या वैराग्यभाव बढ़ता जाता है । आवश्यकताओं को सीमित करते हुए पर-पदार्थों के त्याग में वह निरंतर प्रगतिशील रहता है। ऐसी आत्माओं को चक्रवर्ती, बलदेव, वासूदेव, राजा, इन्द्र आदि सभी बड़े-बड़े अधिकारी सदा बड़े आदरभाव से नमन-वंदन करके अपने को धन्य व कृत्य-पूण्य मानते हैं। भोग पर त्याग की यह महान विजय, त्याग की महत्ता को भलीभाँति प्रकट कर देता है। दीन, रंक, बालक, या स्त्री कोई भी हो, जब वह संसार के विषयवासना या पर-पदार्थों की मूर्छा आसक्ति को छोड़ कर त्यागी बन जाता है, तो वह सबके लिए आदरणीय और पूज्य माना जाता है। - त्यागी का सुख इतना अधिक बतलाया गया है कि उसके सामने चक्रवर्ती और इन्द्र के सुख नि:सार और तुच्छ हैं। एक त्यागी मुनि के आत्मिक आनन्द के सामने वे कौड़ी की कीमत भी नहीं रखते । त्याग में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003192
Book TitleShraman Sanskruti Siddhant aur Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalakumar
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1971
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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