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________________ . श्रमण संस्कृति : सिद्धान्त और साधना राजाओ को जैनधर्म में दीक्षित किया था और उन्हें नियम कराया गया था कि वे राष्ट्ररक्षा के काम में आने वाले आवश्यक शस्त्रों से अधिक शस्त्रसंग्रह न करें। साधनों का आधिक्य मनुष्य को उद्दड एवं अमर्यादित बना देता है। प्रभता की लालसा में आकर वह कभी न कभी किसी पर चढ़ दौड़ेगा और मानव-जगत में युद्ध की आग भड़का देगा। इस दृष्टि से जैन तीर्थंकरों ने हिंसा के मूल कारणों को ही उखाड़ने का प्रयत्न किया है। आज विज्ञान की चकाचौंध में भूला मानव भले यह गर्व करे कि एक-से-एक शक्तिशालो शस्त्रास्त्रों का निर्माण कर विज्ञान युद्ध को सदा के लिए समाप्त कर देगा; किन्तु यह मृगमरीचिका से कतई कम नहीं है। माना, विज्ञान ने कुछेक ऐसी चमत्कारी उपलब्धियों को प्रस्तुत कर दिखाया है, कि जिनसे आज का मानव चकाचौंध में पड़ गया है। किंतु चकाचौंध को दृष्टि कभी भी सही एवं स्थायो हित दृष्टि नहीं हो सकती।। विज्ञान और अहिंसा : __ मानव-विकास का इतिहास इसका साक्षी है, कि जब-जब विज्ञान ने संहारक अस्त्र-शस्त्रों का बहुतायत में निर्माण किया है, मानव ने निहित स्वार्थवश उसका निर्ममता से प्रयोग किया है, फलस्वरूप भयंकर से भयंकर संहारक लोलाएँ देखने को मिली हैं। विश्व का प्रथम एवं द्वितीय महायुद्ध इसका ज्वलंत प्रमाण है। किन्तु हर बार देखा यहो गया है कि मानव-मन ने उन संहारक शस्त्रास्त्रों से. त्रस्त होकर परस्पर में सहानुभूति एवं सहअस्तित्व के आधार पर ही शांति की स्थापना की है। लीग आव नेशन्स एवं यू० एन० ओ० ( संयुक्त राष्ट्रसंघ) इस दिशा में महत्त्वपूर्ण प्रयास है। और, उसके बाद अहिंसा एवं सहअस्तित्व के आधार पर जो शांति स्थापित की गई, वह बहत अंशों में स्थायी सिद्ध हुई। अतः यह निश्चित है कि अहिंसा द्वारा सम्पादित विजय स्थायी एवं शाश्वत विजय होती है। इसी शाश्वत सत्य को अभिव्यक्त करते हुए राष्ट्रकवि दिनकर ने कहा है "ऐसी शांति राज करती है, तन पर नहीं, हृदय पर। . नर के ऊँचे विश्वासों पर, श्रद्धा, भक्ति प्रणय पर ।।" भले ही विज्ञान हमें विपुल परिमाण में शस्त्रास्त्र का खजाना प्रदान करे ; किन्तु हमें उन शस्त्रास्त्रों को अपने ऊपर हावी नहीं For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003192
Book TitleShraman Sanskruti Siddhant aur Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalakumar
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1971
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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