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________________ श्रमण संस्कृति का अहिंसा दर्शन एवं विश्वधर्म-समन्वय ४१ सभी प्राणी संग्रह और व्यवहार नय की दृष्टि से एक ही चैतन्य सागर को अलग-अलग बूदें हैं, एक ही मूल चैतन्य भाव को अलग-अलग पत्तियाँ एवं फूल हैं, जो सभी एक साथ मिलकर सागर का रूप लेती हैं, विशाल वृक्ष का पर्याय बनती हैं। यथार्थ में यह भावना अपने अन्दर में धारण करना एक महान् योग है। इसी को गीता में श्रीकृष्ण ने यों कहा है-"जो सभी जीवों को अपने समान समझता है और उनके सुख-दुःख को अपना सुख-दुःख समझता है, वही परम योगी है" । यह समत्व योग को साधना हो आत्मा को साधना है, अपने आपको साधने का पथ है। इसी भावना को सर्वोपरि बताते हुए भगवान् महावीर ने कहा है-"विश्व के समग्र जीवनिकाय को अपनी आत्मा के समान समझो"८ । “प्राणिमात्र को आत्मतुल्य समझो" ९ । अतः हम कह सकते हैं कि यह आत्मौपम्य दृष्टि, जिसके विषय में भगवान् महावीर ने उद्घोष किया है, इसके मूल में अहिंसा के अमृत सागर की लहरें ही हिलोरें ले रही हैं। यह अहिंसा सागर की लहरें, जिस भावना तल पर लहरा रही हैं, उसकी साधना सामान्य साधना नहीं है; अपितु वीरत्व की महान् साधना है। अहिंसा : वीरत्व का मार्ग : वस्तुतः यह जो अहिंसा की साधना है; यह आत्मा के विराट् भाव की साधना है । आत्मा का भावनात्मक दृष्टि से इतना व्यापक रूप में विकास कर लेना है कि विश्व की सभी आत्माएँ उसमें ठीक उसी प्रकार समाहित हो जाएँ, जिस प्रकार कि भूतल पर लहराने वाली अनेकों नदियाँ सागर में आकर एकीभाव से समाहित हो जाती हैं और सागर बिना किसी राग-द्वेष से सबको अपने अंक में सँजोतासहेजता चला जाता है । वस्तुतः यह राग-द्वेष पर विजय ही तो अहिंसा का पथ है, और उक्त विजय को प्राप्त करने वाला ही तो सच्चे ७. आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन । सुखं वा यदि वा दुःखं स योगी परमो मतः ॥ -गीता, अ० ६।३२ ८. अत्तसमे मणिज्ज छपिपकाए। -~-दश वैकालिक, १०५ ६. आयतुले पयासु। -सूत्र कृतांग सूत्र, १।१०।३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003192
Book TitleShraman Sanskruti Siddhant aur Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalakumar
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1971
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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