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________________ ३६ श्रमण संस्कृति : सिद्धान्त और साधना मस्तिष्क व्यर्थ ही उलझते रहे हैं और आज भी उलझ रहे हैं । अथवा इसका दूसरा ही एक विकल्प है । वह यह कि अहिंसा स्वयं तो एक जीवित जागृत तत्त्व है, जन कल्याणकारी है, पर उसको सही अर्थ में हमने जाना नहीं है । ऐसा लगता है कि कभी-कभी बड़ी लम्बो काल-यात्रा के बाद अच्छे सिद्धान्त भी धूमिल हो जाते हैं या धूमिल कर दिए जाते हैं । वस्तुतः अहिंसा का सम्बन्ध मनुष्य के हृदय के साथ है, मस्तिष्क के साथ नहीं । मस्तिष्क के साथ नहीं है, इसका भावार्थ यह है कि तर्क-वितर्क के साथ नहीं है, कुछ बँधे - बँधाए विवेक- शून्य विश्वासों के साथ नहीं है, विभिन्न शब्दों के जाल में बँधी और उलझी हुई भाषा के साथ भी नहीं है, बल्कि अन्तर्जीवन के साथ है, अन्दर की गहरी आध्यात्मिक अनुभूति के साथ है। अहिंसा की भूमि जीवन है । जिस प्रकार भूमि से वृक्ष का सम्बन्ध टूट जाने पर वह फिर हरा-भरा एवं विकसित नहीं रह पाता, उसी प्रकार जीवन से असंपृक्त रखकर अहिंसा को भो किस प्रकार पल्लवित रखा जा सकता है ? जीवन से असंपृक्त रखने का ही दुष्परिणाम है कि आज अहिंसा केवल स्थूल व्यवहार की क्षुद्र सीमा में आबद्ध हो गई है । जन-जीवन में उसका रस-संचार क्षीण एवं क्षीणतर हो गया है । और इस प्रकार अहिंसा के प्राणों की एक तरह से हत्या ही हो गई है । यदि अहिंसा की प्राण-प्रतिष्ठा करनी है, तो आवश्यकता इस बात की है कि अहिंसा को हम स्थूल - व्यवहार की संकीर्ण परिधि से मुक्त कर उसे व्यापक बनाएँ, जीवन की सूक्ष्म अनुभूति एवं हृदय की गहराई तक उसे अवतरित करें । २. ३. जे य बुद्धा अतिक्कता, जे य बुद्धा अणागया । संति तेसि पइट्ठाणं, भूयाणं जगई जहा ॥ सू० श्रु० १, अ० ११, गा० ३६ । अत्थं सव्व सव्वं, दिस्स पाणे पियायए । न हणे पाणिणो पाणे, भयवेराओ उवरए || उत्तराअध्ययन ६, गा. ७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003192
Book TitleShraman Sanskruti Siddhant aur Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalakumar
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1971
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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