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________________ । श्रमण संस्कृति का विकास एवं विस्तार उत्थानिका: किसी भी देश की संस्कृति के दो रूप होते हैं। एक तो वह जो आन्तरिक जीवन को शुद्ध करने में पूर्ण योग देता है, और दूसरा वह रूप जो बाह्य साधनों द्वारा उसे आन्तरिक शुद्धता की ओर पहँचाने में सहायता प्रदान करता है, जो प्राणी के जीवन का अन्तिम लक्ष्य है- अर्थात आध्यात्म विकास । श्रमण संस्कृति ने इन दोनों रूपों के विकास में जो महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है, वह अतुलनीय है। इस संस्कृति की आत्मा अहिंसा और अपरिग्रहवाद है, जिसे स्याद्वाद द्वारा जीवन के विविध क्षेत्रों में व्यवहृत किया गया है। इसका मूल तत्त्व आत्मा है। इस में आत्म-विकास, गुण-पूजा, परलोक, कर्मफल आदि बातों पर विशेष जोर दिया गया है। इसकी छत्रच्छाया में जिस साहित्य और कला का विकास शताब्दियों तक होता रहा, वह भी अवर्णनीय है। शिल्प, स्थापत्य कला में तो इस संस्कृति के ऐसे समुन्नत और व्यापक रूप का साक्षात्कार हुआ है, मानो अध्यात्म शान्ति का स्रोत ही उमड़ पड़ा हो । श्रमण संस्कृति : श्रमण, समन और शमन-ये तीनों शब्द प्राकृत के 'समण' से बने हैं। वास्तव में श्रमण संस्कृति का सारभूत तत्त्व इन्हीं तीनों शब्दों में निहित है। (१) 'श्रमण' शब्द 'श्रम' धातु से बना है। इसका अर्थ है -श्रम करना । इसका अभिप्राय यह है कि व्यक्ति अपना विकास स्वयं अपने १६ For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003192
Book TitleShraman Sanskruti Siddhant aur Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalakumar
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1971
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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