SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 24
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ११ श्रमण संस्कृति और उसकी प्राचीनता के उपदेश से वे इन्द्रियाँ अन्तर्मुखी हो गयीं। ऋग्वेद में भगवान् ऋषभ का उल्लेख अनेक बार हुआ है। अर्हन् : __ जैन और बौद्ध साहित्य में सहस्रों बार अर्हन् शब्द का प्रयोग हुआ है । जो वीतराग और तीर्थंकर भगवान् होते हैं, वे अहंन् की सज्ञा से पुकारे गये हैं। अर्हन् शब्द श्रमण संस्कृति का अत्यधिक प्रिय शब्द रहा है। अर्हन के उपासक होने से जैन लोग आहेत कहलाते हैं। आर्हत लोग प्रारम्भ से ही कर्म में विश्वास रखते हैं। यही कारण था कि वे ईश्वर को सृष्टि का कर्ता नहीं मानते थे। आहत मुख्य रूप से क्षत्रिय थे। राजनीति की भाँति वे धार्मिक प्रवृत्तियों में विशेष रुचि रखते थे। और वे वाद-विवादों में भी भाग लेते थे। इस आर्हत परम्परा की पूष्टि श्रीमदभागवत, पद्म पुराण, विष्णुपुराण, स्कदपुराण, शिवपुराण, मत्स्यपुराण और देवो भागवत आदि से भी होती है। इन में जैन धर्म की उत्पत्ति के सम्बन्ध में अनेक आख्यान उपलब्ध होते हैं। हनुमन्नाटक में "अर्हन्नित्यथ जैन शासनरताः" लिखा है। श्रमण नेता के लिए अर्हन शब्द का प्रयोग ऋग्वेद में भी हुआ है। __विष्णु पुराण के अनुसार असुर लोग आर्हत धर्म के मानने वाले थे। उनको माया मोह नामक किसी व्यक्ति विशेष ने आहत धर्म में दीक्षित किया था। वे सामवेद, यजुर्वेद और ऋग्वेद में श्रद्धा नहीं रखते थे। अहिंसा धर्म में उनका पूर्ण विश्वास था। वैदिक आर्यों के आगमन के पूर्व भारतवर्ष में सभ्य और असभ्य ये दोनों जातियाँ थीं। असुर, नाग और द्रविड़ ये नगरों में रहने के कारण सभ्य जातियाँ कहलाती थीं। और दास आदि जगलों में निवास करने के कारण असभ्य जातियाँ कहलाती थीं। सभ्यता और संस्कृति की दृष्टि से असुर अत्यधिक उन्नत थे। वे आत्मविद्या के भी जानकार थे। शक्तिशाली होने के कारण वैदिक आर्यों को उनसे अत्यधिक क्षति उठानी पड़ी। वैदिक वाङमय में देव-दानवों का जो युद्ध वर्णन आया है, हमारी दृष्टि से यह युद्ध असुर और वैदिक आर्यों का युद्ध है। वैदिक आर्यों के आगमन के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003192
Book TitleShraman Sanskruti Siddhant aur Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalakumar
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1971
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy