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________________ श्रमण संस्कृति और उसको प्राचीनता के प्रति घृणा न रखते हुए सदा समभाव में रहना चाहिए। जो दूसरों का अपमान करता है, वह दीर्घ काल तक संसार में भ्रमण करता है। अतएव मूनि किसी प्रकार का मद न कर सम रहे । चक्रवर्ती भी दीक्षित होने पर अपने से पूर्व दीक्षित अनुचर के अनुचर को भी नमस्कार करने में संकोच न करे, बल्कि समता का आचरण करें। प्रज्ञासम्पन्न मुनि क्रोध आदि कषायों पर विजय प्राप्त कर समता धर्म का निरूपण करें। जैन संस्कृति की साधना समता की साधना है। समता, समभाव, समदृष्टि ये सभी जैन संस्कृति के मूल तत्त्व हैं। जैन परम्परा में सामायिक को साधना को मुख्य स्थान दिया गया है। श्रमण हो या श्रावक हो, श्रमणी हो या श्राविका हो—सभी के लिए सामायिक की साधना आवश्यक मानी गई है। ___ समता के अनेक रूप हैं। आचार की समता अहिंसा है, विचारों की समता अनेकान्त है। समाज की समता अपरिग्रह है, और भाषा की समता स्याद्वाद है। जिस आचार और विचार में समता का अभाव है, वह आचार और विचार जैन संस्कृति को कभी मान्य नहीं रहा। समता किसी भौतिक तत्त्व का नाम नहीं है, बल्कि मानव मन की कोमल वृत्ति ही समता तथा क्रूर वृत्ति ही विषमता है। प्रेम समता है, वैर विषमता है। समता मानव मन का अमृत है और विषमता विष है । समता जीवन है और विषमता मरण है। समता धर्म है और विषमता अधर्म है। समता एक दिव्य प्रकाश है और विषमता घोर अंधकार है। समता ही श्रमण संस्कृति के विचारों का निचोड़ है। जैसे वेदांत दर्शन का केन्द्र विन्दु अद्वैतवाद और मायावाद है, सांख्य दर्शन का मूल प्रकृति और पुरुष का विवेकवाद है, बौद्ध दर्शन का चिन्तन विज्ञानवाद और शून्यवाद है, वैसे ही जैन संस्कृति का आधार अहिंसा और अनेकान्तवाद है। जैन संस्कृति के विधायकों ने अहिंसा पर गहराई से विवेचन किया है। उन्होंने अहिंसा की एकांगो और संकुचित व्याख्या न कर सर्वांगपूर्ण व्याख्या की है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003192
Book TitleShraman Sanskruti Siddhant aur Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalakumar
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1971
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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