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________________ श्रमण संस्कृति और उसकी प्राचीनता भारत की अनेकविध संस्कृतियों में श्रमण संस्कृति एक प्रधान एवं गौरवपूर्ण संस्कृति है। समताप्रधान होने के कारण यह संस्कृति श्रमण संस्कृति कहलाती है। वह समता मुख्य रूप से तीन बातों में देखी जा सकती है । १. समाजविषयक, २. साध्य विषयक और ३. प्राणि जगत् के प्रति दृष्टि विषयक । १. समाज विषयक समता का अर्थ है--समाज में किसी एक वर्ग का जन्मसिद्ध श्रेष्ठत्व और कनिष्ठत्व मानना। श्रमण संस्कृति समाज-रचना या धर्म विषयक अधिकार जन्मसिद्ध वर्ण और लिंग को न देकर गुणों को देती है। जन्म से किसी का महत्त्व नहीं होता है। महत्त्व होता है सद्गुणों का, पुरुषार्थ का। जन्म से कोई महान् नहीं होता और न हीन ही होता है। हीनता और श्रेष्ठता का सही आधार जीवनगत गुण-दोष ही हो सकते हैं। २. साध्य विषयक समता का अर्थ है-अभ्युदय का एकसदृशरूप । श्रमण संस्कृति का साध्य एक ऐसा आदर्श है जहाँ किसी भी प्रकार का स्वार्थ नहीं है-न ऐहिक और न पारलौकिक ही । वहाँ विषमता का नहीं, अपितु समता का साम्राज्य है। वह अवस्था तो योग्यता, अयोग्यता, अविकता, न्यूनता, हीनता व श्रेष्ठता आदि से पूर्ण रूप से परे है। ३. प्राणिजगत के प्रति दृष्टिविषयक समता का अर्थ है-संसार में जितने भी जीव हैं-चाहे मानव हो या पशु-पक्षी हो, कीट-पतंग हो या वनस्पति आदि हो, उन सभी को आत्मवत् समझना, उनका वध आत्मवध की तरह कष्टप्रद मानना। 'आत्मवत् सर्व भूतेषु' की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003192
Book TitleShraman Sanskruti Siddhant aur Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalakumar
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1971
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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