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________________ धर्म और दर्शन विशेष) से एक पुरुष की हत्या हुई थी। उसी कर्म के कारण मेरा पैर काँटे से विध गया है।"४२ भगवान् महावीर के जीवन प्रसंगों से भी यह बात स्पष्ट है कि उन्हें साधनाकाल में जो रोमांचकारी कष्ट सहने पड़े थे, उनका मूल कारण पूर्वकृत कर्म ही थे।४३ आत्मा स्वतन्त्र है या कर्म के अधीन ? पहले बताया जा चुका है कि जीव जैसा कर्म करता है वैसा ही उसका फल उसे प्राप्त होता है। शुभकर्म का फल शुभ होता है और अशुभकर्म का फल अशुभ होता है ।४४ कर्म की मुख्यतः दो अवस्थाएँ हैं-बंध (ग्रहण) और उदय (फल) । कर्म को बांधने में जीव स्वतन्त्र है, किन्तु उसके फल को भोगने में वह स्वतन्त्र नहीं है, कर्म के अधीन है। जिस प्रकार कोई व्यक्ति वृक्ष पर चढ़ता है वह चढ़ने में स्वतन्त्र है, अपनी इच्छानुसार चढ़ सकता है किन्तु असावधानीवश गिर जाय तो वह गिरने में स्वतन्त्र नहीं है।४५ वह इच्छा से गिरना नहीं चाहता तथापि गिर जाता है, अतः गिरने में परतन्त्र है। इसी प्रकार भंग पीने में स्वतन्त्र है, किन्तु उसका परिणाम भोगने में परतन्त्र है। उसकी इच्छा न होते हुए भी भंग अपना चमत्कार दिखलाएगी ही। उसकी इच्छा का फिर कोई मूल्य नहीं है। ४३. ही ४२. इत एकनवते कल्पे, शक्त्या में पुरुषो हतः ।' तेन कर्मविपाकेन, पादे विद्धोस्मि भिक्षवः ।। -षड्दर्शन समुच्चय, टीका देखिए : लेखक का 'महावीर जीवनदर्शन ग्रन्थ' ४४. सुच्चिण्णा कम्मा सुच्चिण्णफला भवंति, दुच्चिण्णा कम्मा दुच्चिण्णफला भवंति । - दशाश्रत स्कन्ध, ६ ४५. कम्मं चिणंति सवसा, तस्सुदयम्मि उ परवसा होन्ति । रुक्खं दुरुहइ सवसो, विगलस परवसो तत्तो ।। -विशेषावश्यक, भाष्य १-३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003191
Book TitleDharm aur Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1967
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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