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________________ धर्म और दर्शन दर्शन, न्याय दर्शन" वेदान्तदर्शन प्रभृति भी कर्म को ही जीव की विविध अवस्थाओं का कारण मानते हैं । यह एक परखा हुआ सिद्धान्त है कि जैसा बीज होगा वैसा ही वृक्ष होगा । २३ ૪ सौटंची स्वर्ण में कोई भेद नहीं होता, किन्तु विजातीय तत्त्व के संमिश्रण के कारण उसमें भेद होता है । वैसे ही निश्चय दृष्टि से २०. २१. सदरूपनीरूपयोः, (ख) क्ष्माभृद्ररङ्कयोर्मनीषिजडयोः श्रीमदुर्गतयोर्बलाबलवतोर्नी रोग रोगातयोः सौभाग्यासुभगत्व-संगम- जुषोस्तुल्येऽपि नृत्येऽन्तरं, यत्तत्कर्मनिबन्धनं तदपि नो जीवं विना युक्तिमत् ॥ (ग) जो तुल्लसाहणारणं, फले कज्जत्तणओ गोयम ! घडोब्ब हेऊ य सो कम्मं । - कर्मग्रन्थ प्रथम टीका - - देवेन्द्र सूरि विसेसो ण सो विणा हेउ । (ख) कर्मजं लोकवैचित्र्यं । भासितं पेतं महाराज, भगवता - कम्मस्सका माणवसत्ता, कम्मदायादा, कम्मयोनी, कम्मबन्धू, कम्मपटिसरणा, कम्मं सते विभजति, यदिदं पणीततात ॥ -- विशेषावश्यक भाष्य, जिनभद्रगणी Jain Education International - मिलिन्द प्रश्न ३२ जगतो यच्च वैचित्र्यं, सुखदुःखादिभेदतः । कृषिसेवादिसाम्येऽपि विलक्षणफलोदयः ॥ अकस्मान्निधिलाभस्य विद्यत्पातश्च कस्यचित् । क्वचित्फलमयत्नेऽपि यत्नेऽप्यफलता क्वचित् ॥ तदेतद् दुर्घटं दृष्टात्कारणाद् व्यभिचारिणः । तेनादृष्टमुपेतव्यमस्य किञ्चन कारणम् || २२. ब्रह्मसूत्र -- शांकर भाष्य २।१।१४ २३. करम प्रधान विश्व करि राखा । जो जस करहि सो तस फल चाखा ।। -- श्रभिधर्म कोष ४।१ --त्यायमंजरी - जयन्तभट्ट For Private & Personal Use Only - रामचरितमानस www.jainelibrary.org
SR No.003191
Book TitleDharm aur Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1967
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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