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________________ ग्यारह महावीर के सिद्धान्त श्रमण भगवान् श्री महावीर युगप्रवर्तक क्रान्तिकारी और सूक्ष्म द्रष्टा महापुरुष थे। जिस युग में वे जन्मे थे उस युग में मानव अविद्या और रूढ़ियों की जंजीरों से जकड़ा हुआ था । भीषण अत्याचार पनप रहे थे । मानवता का कोई सम्मान नहीं था। जातिवाद को खुलकर प्रश्रय प्राप्त था । धर्म के नाम पर हजारों मूक प्राणियों की ही नहीं, अपितु मानवों की भी बलि दी जाती थी। उनके करुण क्रन्दन से भी धर्मध्वजियों के हृदय द्रवित नहीं होते थे । अन्धपरम्परा के निबिडतम अन्धकार से लोगों की आँख खोलने की शक्ति एकदम क्षीण हो चुकी थी। वे बिलकुल असहाय और विवश थे। उस विकट-वेला में दीर्घ तपस्वी और साधना के कषोपल पर कसे हुए महावीर एक नूतन सन्देश लेकर आये। उन्होंने भूले-भटके जीवनराहियों को प्रशस्त पथ का प्रदर्शन करते हुए अकारत्रयीअहिंसा, अपरिग्रह और अनेकान्त की दिव्य देशना दी। प्रस्तुत अकारत्रयी में महावीर की समग्र वाणी का सार है, शेष जो कुछ भी है-इसी का विस्तार है। अहिंसा : भगवान् ने कहा-हिंसा ग्रन्थि है, मोह है, मृत्यु है, नरक है।' एतदर्थ ही वीर पुरुष अहिंसा के राजपथ पर चल पड़े हैं, तुम भी १. एस खलु गन्थे, एस खलु मोहे, एस खलु मारे, एस खलु णिरए। -प्राचारांग १।३।२३ २. पणया वीरा महावीहि । -प्राचारांग श्रु० १, अ० १ उ० ३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003191
Book TitleDharm aur Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1967
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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