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________________ अहिंसा और सर्वोदय जीव मुझे क्षमा करें, मैं भी सबको क्षमा करता हूँ, सबके साथ मेरी मित्रता है, किसी पर भी मेरा वैर भाव नहीं है संसार का कल्याण हो, प्राणी एक दूसरे के हित में हमारे समग्र दोष नष्ट हों, सर्वत्र जीव सुखी रहें ।२८ विश्वात्मवाद सर्वोदय का प्रादर्श है और समन्वय उसकी नीति है । विश्वात्मवाद के द्वारा वह मानवनिर्मित समस्त विषमताओं को समता में परिवर्तित करना चाहता है। एक व्यक्ति सुख के सागर पर तैरता रहे और दूसरा व्यक्ति दुःख की भट्टी में झुलसता रहे, यह अनुचित है । वर्णव्यवस्था समाजकृत है, यह कृत्रिम है, स्वाभाविक नहीं, अतः सर्वोदय सभी वर्गों का उत्कर्ष चाहता है । पर - उत्कर्ष में ही स्व-उत्कर्षं निहारता है । सर्वोदय की निष्ठा राजनीति में नहीं, लोकनीति में है, शासन में नहीं, अनुशासन में है अधिकार में नहीं, कर्तव्य में है । विषमता में नहीं, समता में है । भेद में नहीं, प्रभेद में हैं, अनेकत्व में नहीं एकत्व में है । २७. जहाँ हिंसा है, मंत्री है, करुणा है, दया है, स्नेह है, सौहार्द है, सद्भावना है, वहीं सर्वोदय है और जहाँ सर्वोदय है बहीं शान्ति है, सुख है । २८. खामेमि सव्वे जीवा, सव्वे जीवा खमन्तु मे I मित्ती मे सव्वभूएसु, वेरं मज्झ ं न केणइ || शिवमस्तु दोषाः Jain Education International सर्वजगतः परहित निरता भवन्तु भूतगणाः । प्रयान्तु नाशं -श्रावश्यक सूत्र १७५ ।२७ "सम्पूर्ण सदा रत रहें, सर्वत्र सुखी भवतु लोकः । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003191
Book TitleDharm aur Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1967
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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